प्रियव्रत-चरित्र

प्रियव्रत-चरित्र  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 6780 | जून 2015

गूढ़ ज्ञान जानने की अभिलाषा से महाराज परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा-मुने ! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रम में कैसे रूचि हुई और पुनः किस प्रकार राज्य शासन से मोह भंग कर भगवद्भजन कर आत्म कल्याण प्राप्त हुआ। कृपया उत्तानपाद के भाई प्रियव्रत का चरित्र भी श्रवण कराके मुझे कृत-कृत्य करें। श्री शुकदेव जी ने कहा-राजन्। जिनका चित्त श्री हरि के चरणों की शीतल छाया का आश्रय लेकर शांत हो गया था, फिर भी प्रियव्रत ने ब्रह्माजी के कहने पर स्त्री, घर और पुत्रादि में आसक्त रहकर सिद्धि प्राप्त कर ली। यह भगवान श्रीकृष्ण की अविचल भक्ति का प्रवाह ही था। राजकुमार प्रियव्रत श्री नारदजी के चरणों में स्थित रहते हुए श्री वासुदेव भगवान् के दिव्य चरित्रों का रसास्वादन करते-करते श्री हरि के परम मधुर चरण-कमल-मकरन्द के रस में सराबोर हो, परमार्थ तत्त्व ज्ञान से युक्त हो गए थे। उनका मन-बुद्धि अंतःकरण चतुष्ट्य प्रवृत्ति सभी कुछ श्री कृष्णार्पण हो चुका था। वे ब्रह्मसूत्र की दीक्षा - निरंतर ब्रह्माभ्यास में जीवन बिताने का नियम लेने वाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनु ने उन्हें पृथ्वी पालन के लिए शास्त्र में बताए हुए सभी श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया संपन्न देख राज्य शासन के लिए आज्ञा दी।

किंतु प्रियव्रत अखंड समाधि योग के द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओं को भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पण कर चुके थे। अतः यह विचारकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपंच से आच्छादित हो जायेगा; राज्य और कुटुंब की चिंता में फंसकर मैं परमार्थ तत्त्व को प्रायः मानस-पटल से विस्मृत कर दूंगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया। यह श्री नारद जी के चरण-कमलों की सेवा का ही अद्वितीय प्रभाव था। स्वायम्भुव मनु ब्रह्माजी के पास गए और कहा कि महाराज, मैं तो आपका बेटा होकर आपकी आज्ञा से संसार का कार्य कर रहा हूं। लेकिन मेरा बेटा प्रियव्रत मेरी बात नहीं मानता। वह कहता है कि मैं तो भगवान का भजन ही करूंगा। जब उन्होंने योगबल से प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदों को साथ लिए अपने लोक से उतरे। जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चंद्रमा के समान गंधमादन की घटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास जा पहुंचे। प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश करने के लिए वहां नारदजी पहले से ही उपस्थित थे।

श्री शुकदेव बाबा कहते हैं- राजन्। ्रह्माजी के वहां पहुंचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्माजी पधारे हैं, अतः वे प्रियव्रत सहित तुरंत खड़े हो गए और सभी ने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया। नारदजी ने उनकी अनेक प्रकार से पूजा की और सुमधुर वचनों में उनके गुण और अवतार की उत्कृष्टता का वर्णन किया। तब ब्रह्माजी ने प्रियव्रत की ओर मंद मुस्कानयुक्त दयादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा- बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धांत की यथार्थ बात कहता हूं, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय, आप्तकाम, पूर्णकाम श्री हरि के प्रति किसी प्रकार की दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिए। तुम्हीं क्या-हम, महादेव जी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं। उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल तथा बुद्धिबल से, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है। उसी अव्यक्त, अविनाशी ईश्वर के दिए हुए शरीर को सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुख का भोग करने तथा कर्म करने के लिए सदा धारण करते हैं।

हमें उनकी इच्छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आंख वाले पुरूष का। अतः बेटा ! बिना जीते हुए मन और इन्द्रिय रूपी शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते और जो बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा में ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है। जिसे इन इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीतने की इच्छा हो, वह पहले घर में रहकर ही उनका अत्यंत निरोध करते हुए उन्हें वश में करने का प्रयत्न करें। तुम यद्यपि श्रीकमलनाथ भगवान् के चरणकमल की कालीरूप किले के आश्रित रहकर इन छः शत्रुओं को जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराण पुरूष के दिए हुए भोगों को भोगो; इसके बाद निसंग होकर अपने आत्मरूप में स्थित हो जाना। श्री शुकदेव जी कहते हैं - राजन् ! जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार कहा, तो प्रियव्रत ने छोटे होने के कारण नम्रता से सिर झुका लिया और जो ‘आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदर पूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया। तब स्वायम्भुव मनु ने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्माजी की सविधि पूजा की। मनुजी ने इस प्रकार ब्रह्माजी की कृपा से अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने पर देवर्षि नारदजी की आज्ञा से प्रियव्रत को संपूर्ण भूमंडल की रक्षा का भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जल से भरे हुए गृहस्थाश्रम रूपी दुस्तर जलाशय की भोगेच्छा से निवृत्त हो गए।

अब प्रियव्रत भगवान् की इच्छा से राज्यशासन करने लगे। यह उनके हृदय की विशालता की ही एक उत्कृष्ट प्रस्तुति है कि किस प्रकार भगवान् के चरण युगल का निरंतर ध्यान करते रहने से रागादि सभी मलों से निवृत्त हो चुके महाराज प्रियव्रत बड़ों का मान रखने हेतु सम्राट के पद पर सुशोभित हो गए। तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह कर शीलवान, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान और पराक्रमी-आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि नाम के दस पुत्र तथा उनसे छोटी ऊर्जस्वती नाम की कन्या को जन्म दिया। इनमें कवि, महावीर और सवन ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर भगवान् वासुदेव के निरंतर ध्यान करते हुए भगवान वासुदेव को ही प्राप्त हो गए। महाराज प्रियव्रत की दूसरी भार्या से उत्तम, तामस और रैवत नाम वाले तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। ग्यारह अर्बुद वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। जिस समय वे अपनी अखंड पुरूषार्थमयी और वीर्यशालिनी भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर टंकार करते थे, उस समय डर के मारे सभी धर्मद्रोही ऐसे छिप जाते थे जैसे सूर्य भगवान के उदित होने पर तारागणों का समूह छिप जाता है।

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् भुवन भास्कर सुमेरू की परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वी के आधे भाग को ही आलोकित करते हैं और आधे में अंधकार छाया रहता है, तो इन्होंने यह संकल्प लेकर कि मैं रात को भी दिन बना दूंगा,’’ सूर्य के समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथ पर चढ़कर द्वितीय सूर्य की भांति उनके पीछे-पीछे पृथ्वी की सात परिक्रमाएं कर डालीं। भगवान की कृपा से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत ही बढ़ गया था। परिक्रमा के समय रथ के पहियों से बनी सात लीकें ही सात समुद्र व पृथ्वी के सात द्वीप - जंबू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, कोंच, शाक और पुष्कर द्वीप क्रमशः पहले-पहले की अपेक्षा आगे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना बन गया। सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जल से परिपूर्ण बने। इन सातों द्वीपों के राजा क्रमशः तीन नौष्ठिक ब्रह्मचारियों के बंधे सात भाई हुए। इन्होंने अपनी कन्या ऊर्जास्वती का विवाह शुक्राचार्य जी से किया, उसी से शुक्र कन्या देवयानी का जन्म हुआ। इस प्रकार अतुलनीय बल पराक्रम से युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, दैववश प्राप्त हुए प्रपंच में फंस जाने से अशांत सा देख, मन ही मन, विरक्त होकर, संपूर्ण पृथ्वी को पुत्रों को बांटकर वैराग्य धारण कर भगवान् की लीलाओं का चिंतन करते हुए उसके प्रभाव से श्री नारदजी के बतलाए हुए मार्ग का पुनः अनुसरण करने लगे। महाराज प्रियव्रत के जो कर्म थे वे सर्वशक्तिमान् ईश्वर के ही कर्म थे। वे भगवद्भक्त नारदादि के प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताल लोक के, देवलोक के, मृत्युलोक के तथा कर्म और योग की शक्ति से प्राप्त हुए ऐश्वर्य को भी नरकतुल्य समझा था। इसी कारण कण-कण में व्याप्त सर्वेश्वर भगवान की अद्वि तीय कृपा से उनके नाम लीला धाम पार कर ऐश्वर्य कथा रस में निमग्न होते हुए परमपद का लाभ प्राप्त किया।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.