विवाह में पत्री मिलान की भूमिका

विवाह में पत्री मिलान की भूमिका  

निधि अग्रवाल
व्यूस : 5403 | अकतूबर 2007

मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज का निर्माण परिवार से होता है। परिवार का निर्माण दो व्यक्तियों के मिलन से होता है। इस मिलन को हम विवाह कहते हैं। परिवार समाज की मूलभूत इकाई है। एक स्वस्थ व खुशहाल परिवार ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। भारतीय विवाह पद्धति ही सिर्फ एक ऐसी पद्धति है जिसमें विवाह योग्य लड़के व लड़की की जन्म तिथि व समय के आधार पर कुंडलियां बनाकर उनका मेलापक करके विवाह की अनुमति देते हैं। कुंडली मिलान में 36 गुण होते हैं जिनमें कम से कम 18 मिलने चाहिए पर ही विवाह करना चाहिए। इस मिलान को अष्टकूट मिलान कहते हैं। कुंडली मिलान के दो भेद हैं

- ग्रह मिलान और नक्षत्र मिलान/राशि/पुकारा जाने वाला नाम ग्रह मिलान में दोनों की कुंडलियों के विभिन्न भावों में स्थित ग्रहों के मिलान व स्थिति पर विचार किया जाता है। इसमें ग्रहों की शत्रुता व मित्रता देखी तथा आपस में युति देखी जाती है। नक्षत्र मिलान में जिस राशि में चंद्रमा हो उसके अनुसार नक्षत्र गणना कर नक्षत्र मिलान करते हैं। आजकल पुकारने वाले नाम के नक्षत्र का मिलान किया जाता है, पत्री के नक्षत्र का नहीं जो कि एक गलत तरीका है। अष्टकूट मिलान में निम्नलिखित आठ बातों का अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार अंकों का जोड़ 36 होता है।

1. वर्ण जातीय कर्म 1

2. वश्य स्वभाव 2

3. तारा भाग्य 3

4. योनि यौन विचार 4

5. ग्रहमैत्री आपसी संबंध 5

6. गण सामाजिकता 6

7. भकूट जीवन शैली 7

8. नाड़ी आय/संतान 8 36 यदि अष्टकूट मिलान में 18 गुण मिलते हैं तो विवाह की अनुमति दे दी है।


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आधुनिक संदर्भ में अष्टकूट मिलान में से ग्रह मैत्री और भकूट को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। विवाह के लिए कुंडली में पंचम, द्वितीय, सप्तम और अष्टम भावों पर विचार किया जाता है परंतु इनमें सप्तम व पंचम मुख्य हैं। केवल अष्टकूट मिलान पर्याप्त नहीं है, अपितु वर और कन्या के सप्तम भाव का शुभ होना भी विवाहित जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है।

इसके अतिरिक्त द्वितीय, चतुर्थ, पंचम तथा द्वादश भावों का विश्लेषण पारिवारिक तालमेल सुख, प्रेम तथा शयन सुख के लिए आवश्यक होता है। सप्तम भाव जीवन साथी का भाव है। इससे स्वभाव, रूप, रंग, प्रेम विवाह, व्यवहार आदि का विश्लेषण किया जाता है। वर्तमान समय में विवाह एक सामाजिक आवश्यकता भी नहीं रहा है।

पति पत्नी साथ रहकर भी एक दूसरे से मानसिक व व्यावहारिक दोनों स्तरों पर दूर रहते हैं। इस विवाह का क्या अर्थ है जब दोनों व्यक्ति अनजानों की तरह पूरी जिंदगी व्यतीत कर दें। यहां कुछ दम्पतियों की कुंडलियों का विश्लेषण प्रस्तुत है जो साथ रहकर भी अलग हंै। आशा व अरविंद का विवाह 2003 में हुआ किंतु सामंजस्य में कमी के कारण एक दूसरे से दूर रह रहे हैं। आशा की कुंडली में लग्न कुंभ है तथा केतु विराजमान है।

सप्तम में शनि, सूर्य व राहु हैं तथा केतु की पूर्ण दृष्टि सप्तम की स्थिति को और खराब कर रही है। इस योग का जातक की मानसिक स्थिति पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, सप्तम की स्थिति भी खराब होती है। मंगल व चंद्रमा पंचम विवाह से पूर्व तथा बाद में पुरुष वर्ग के प्रति आकर्षण दर्शाते हैं। राहु की अंतर्दशा जब-जब आई तो दोनों में मनमुटाव बढ़ा। आशा ससुराल छोड़कर दूसरे शहर में रहती है।

पति पत्नी मिलते हैं परंतु आत्मीयता से नहीं। अरविंद की कुंडली में कालसर्प योग सप्तमेश व पंचम भाव को पूर्णतः प्रभावित कर रहा है। दोनों की कुंडलियों में राशि मैत्री का भी अभाव है। शनि कुटुंब में बैठकर कुटुंब सुख में कमी कर रहा है। दोनों का विवाह नाम से मिलान करके किया गया। आज भी शादी के बाद एकाकी जीवन जी रहे हैं। दूसरे उदाहरण में अनुजा की कुंडली मेष लग्न की है जिसका स्वामी मंगल सूर्य के साथ है, सूर्य पंचम का स्वामी है और सप्तम में शुक्र की राशि में चंद्रमा है।


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यह जातका को अधिक कामी बनाता है और पुरुष के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है। इसका प्रभाव जीवन साथी पर भी पड़ता है। चतुर्थ में राहु है जिसके कारण घर का सुख अधिक नहीं है। जातका तीन साल के वैवाहिक जीवन में दो साल मायके रही है। वर्तमान में शनि में केतु की दशा चल रही है इसलिए जातका पिता के घर पर ही रह रही है। सन्नी की तुला लग्न की कुंडली केतु व बुध से प्रभावित है।

लग्न का स्वामी शुक्र सूर्य से युति कर षष्ठ में स्थित है और जातक की स्वभाव को गर्म व भ्रमित कर रहा है सप्तम पर केतु, राहु व शनि का प्रभाव है और सप्तम तथा जीवन साथी के सुख में कमी कर रहा है। इस तरह ऐसे अनेक दम्पति हैं जो गाड़ी के दो पहिए तो हैं परंतु उनमें तालमेल नहीं है। इसका एक कारण सामाजिक परिवेश में आया बदलाव भी है।

आज सभी स्वयं संपूर्ण हैं, किसी को किसी की आवश्यकता नहीं है। विवाह दो व्यक्तियों के तालमेल, उनके आपसी सामंजस्य का ही नाम है। कहीं न कहीं हमारा प्रारब्ध कर्म भी इसका कारण है। पिछले जन्म के दुष्कर्म हमारे इस जन्म को बिगाड़ते हैं। हमें अपने कर्मों को सुधारना चाहिए। भगवत गीता में भी कर्मों पर उपदेश दिया है, न कि फल पर।



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