अरिष्ट निवारक महामृत्युंजय महादेव

अरिष्ट निवारक महामृत्युंजय महादेव  

व्यूस : 7689 | मई 2009
अरिष्ट निवारक महामृत्युंजय महादेव डाॅ. संजय बुद्धिराजा भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के पश्चात संसार को विष की ज्वाला से बचाने के लिए जब भगवान शिव ने विषपान किया तो उनका संपूर्ण शरीर कृष्णवर्ण तथा स्वभाव उग्र हो गया। तब सभी देवताओं ने वेदमंत्रों का जप करते हुए विविध सामग्रियों तथा स्तुतियों से उनका अभिषेक कर उन्हें प्रसन्न किया। इस प्रकार संसार को मृत्यु से बचाने वाले भगवान शिव स्वयं महामृत्युंजय कहलाए। प्राचीन काल में शुक्राचार्य ने काशी में भगवान शिव की विविध सामग्रियों से मृत्यु अष्टक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आराधना की व उनका अभिषेक किया। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान और महामृत्यंुजय मंत्र की दीक्षा दी। एक बार शुक्राचार्य के महामृत्यंुजय विद्या का अनुचित उपयोग करने पर भगवान शिव ने उन्हें निगल लिया, तो सौ वर्षों तक शुक्राचार्य बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ सके। तब वह भगवान शिव से ही पूर्व में प्राप्त मृतसंजीवनी विद्या का स्मरण कर महामृत्यंुजय मंत्र का जप करते हुए शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वायुमार्ग से अपने लिंग के छिद्र से बाहर निकाल कर बंधन मुक्त किया। महामृत्यंुजय भवगवान शिव को प्रसन्न करने की महामृत्यंुजय मंत्र के जप से बढ़कर कोई साधना नहीं है। कहा जाता है कि शिव तो सीधे हैं, उन्हें श्रद्धापूर्वक किंचित आराधना से भी प्रसन्न किया जा सकता है, फिर महामृत्युंजय मंत्र का जप तो सर्वाधिक अचूक उपाय है। वेदोक्त और प्रणव सहित महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार हैं। 1. वेदोक्त मंत्रा: ¬ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। 2. प्रणव सहित महामृत्युंजय मंत्रा - ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बंक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। भूर्भुवः स्वरों जूँ सः हौं ¬ महामृत्युंजय मंत्रा का भावार्थ विभिन्न विद्वानों ने महामृत्यंुजय मंत्र की अलग-अलग व्याख्याएं की हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार है- तीन नेत्रों वाले भगवान शिव की हम उपासना करते हैं, हम सुगंधि से युक्त और पुष्टि प्रदान करने वाले भगवान त्रिनेत्रधारी शिव की आराधना करते हैं जो हमारे समस्त अरिष्टों, राग-द्वेष जैसे विकारों या बंधनों को उसी प्रकार दूर करें जैसे खरबूजा का फल पकने पर अनायास ही लता से अलग हो जाता है। जीवन पर्यंत हम सुखी रहें और मरणोपरांत सद्गति को प्राप्त हों। अमृत से नहीं, क्योंकि अमृत से मुक्ति की सीमा होती है परंतु शिवजी की भक्ति, आराधना व मंत्र जप के प्रभाव से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। ध्यान: ध्यान के मंत्र इस प्रकार हैं। हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैः आप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाऽक्षबलये द्वाभ्यां वहन्तं परम् अंकन्यस्त करद्वयामृतघटम् कैलाशकान्त शिवम् स्वच्छाम्भोज गतं नवेन्दु मुकुटाभान्तं त्रिनेत्रं भजे। अर्थात शिव के विषपान करते समय जब सभी देव उनका अभिषेक करने लगे तो भगवान शिव ने अनेक हाथों से अमृत कलश व सामग्रियों को स्वीकार कर लिया और प्रसन्नता से अपना अभिषेक स्वयं ही करने लगे। उस समय भालचंद्र का रूप स्वच्छ नए कमल के समान हो गया था। ऐसे त्रिनेत्रधारी महामृत्युंजय देव का हम ध्यान करते हैं। माला पूजन ध्यान के बाद पूजन सामग्री से मृत्युंजय महादेव की पूजा कर ओम् ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः मंत्र का जप करते हुए गंध, अक्षत, पुष्पमाला आदि से माला की पूजा करनी चाहिए। यह पूजा जातक को स्वयं नित्य नियमपूर्वक करनी चाहिए और मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला पर 108 की संख्या में करना चाहिए। पूजा की यह क्रिया नियम एवं निष्ठापूर्वक करने से परेशानियों और अरिष्टों से मुक्ति मिलती है। अनुष्ठान में 1100 से 11000 जप का विधान है। सवा लाख के जप से सभी प्रकार की मनोकामनाएं पूरी तथा अरिष्ट दूर होते हैं। पूजोपरांत इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। ‘‘मृत्युंजय महारुद्र जराव्याधि विनाशकः नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमो नमः महामृत्युंजय देवाय जपं आर्पणं अस्तु ¬ शान्तिः ¬ शान्तिः ¬ शान्तिः’’ तात्पर्य यह कि महामृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान जातक को सन्मार्ग पर ले जाता है। इस अनुष्ठान से इस घोर कलियुग मंे भी अरिष्टों का शमन होता है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। अतः वांछित फल की प्राप्ति के लिए यह अनुष्ठान नियमित रूप से निष्ठापूर्वक करना चाहिए।



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