कनकधारा स्तोत्र

कनकधारा स्तोत्र  

प्रेम शंकर शर्मा
व्यूस : 8186 | नवेम्बर 2010

आदि गुरु शंकराचार्य अपने आहार के लिए नित्य प्रति किसी भी एक घर में जाकर भिक्षा मांगते थे, उस घर से उन्हें जो भी प्राप्त होता उसे स्वीकार कर अपनी उदर पूर्ति करते। एक दिन वह एक वृद्ध महिला के यहां भिक्षा मांगने गये। काफी समय उपरांत वह वृद्ध महिला अपने हाथ में एक बेर की सूखी गुठली लेकर आई तथा अत्यंत हीन भाव से रोती हुई शंकर (आदि गुरु शंकराचार्य) से बोली, ‘‘मेरे घर में बहुत ढूढ़ने पर भी आपके भोजन के लिए इसके अलावा कुछ भी नहीं मिला है। शंकर मैं अत्यंत अभागी तथा दरिद्री हूं।’’

आदि गुरु शंकर को उस वृद्ध महिला पर दया आ गई और उसी स्थान पर खड़े-खड़े शंकराचार्य ने महालक्ष्मी का आवाहन किया, लक्ष्मी जी प्रकट हुई और बोली, ‘‘शंकर इस वृद्ध महिला के भाग्य में धन नहीं है अतः मैं इसके पास नहीं रह सकती,’’। तब शंकर ने महालक्ष्मी से कहा, ‘‘मैं नहीं जानता इस वृद्ध महिला के भाग्य में क्या है जो मेरे भाग्य का है उसे मैं किसी को भी दे सकता हंू। अतः आपको यहां रहना होगा।’’ इतिहास साक्षी है कि उस वृद्ध महिला के घर में शकर के आवाहन से स्वर्ण वर्षा हुई। शंकर का यह आवाहन जिससे स्वर्ण वर्षा हुई ‘कनक धारा स्तोत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है तथा सभी के लाभार्थ इसे हम यहां दे रहे हैं।

कनकधारा स्तोत्रम् अङगं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङगाङगनेव मुकुलाभरणं तमालम्। अङगीकृताखिलविभूतिरपाङगलीला माङगल्यदाऽस्तु मम मङगलदेवतायाः।।1।।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि। माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि। ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनङगतन्त्रम्। आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङगशयाङगनायाः।।4।।

बाह्नन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति। कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः।।5।।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदङगनेव। मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः।।6।।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्माङगल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन। मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः।।7।।

दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकि×चनविहङगशिशौ विषण्णे। दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः।।8।।

इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते। दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः।।9।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति। सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै।।10।।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै। शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै।।11।।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै। नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै।।12।।

सम्पत्काराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि। त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये।।13।।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः। संतनोति वचनाङगमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे। भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङगीम्। प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङिगतैरपाङगैः। अवलोकय मामकि×चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः।।17।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्। गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः।।18।।

इति श्रीकनकधारा लक्ष्मीस्तोत्रम्।। स्वर्णधारा स्त्रोतं यच्छंकराचार्य विर्निमितम।। त्रिःसन्ध्यंयः पठेन्नित्यं स कुबेर समो भवेन्नरः।।1।।

इति कनकधारा स्तोत्र



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