गीता सार

गीता सार  

कृष्णा कपूर
व्यूस : 4964 | मई 2016

निर्भान मोहा जित संग दोषा, अध्या मनित्या विणिवृत कामा। द्वन्द्वै र्विमुक्ता सुखदुःखसज्जै, गन्छन्तय मूढ़ाः पदमव्ययं तत् गीता के पंद्रहवें अध्याय में पुरूषोत्तम योग में वर्णन किया गया है। कुरुक्षेत्र में युद्ध के मैदान में कौरव व पांडवों के बीच युद्ध के समय जब अर्जुन को मोह उपजा तो श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन का मोह भंग करने के लिये ज्ञान दिया कि यह शरीर व संसार नश्वर है, वास्तविक सत्य तो ईश्वर का सत्य लोक है जहां मृत्योपरांत आत्मा को पहुंचना होता है, उस सत्यलोक को ही गोलोक भी कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आत्मशक्ति रूप दोषों को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है (ध्यान) और जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं, वे सुख दुःख नामक द्वंद्वों से विमुक्त ज्ञानी जन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।

जो व्यक्ति ईश्वर के शरणागत होकर उस परम पद को प्राप्त करना चाहते हैं उसके लिये जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता होती है वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना। चूंकि वृद्ध जीव अपने को पृथ्वी का स्वामी मानकर गर्वित रहता है अतएव इसके लिये भगवान की शरण में जाना कठिन होता है। उसे वास्तविक ज्ञान द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है। उसका स्वामी तो परमेश्वर है। जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है तभी शरणागति की प्रक्रिया उत्पन्न हो सकती है। जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है उसके लिये भगवान के शरणागत होना कठिन है। हम यहां उपाधियों के पीछे पड़े रहते हैं। कोई ‘‘सर’’ की पद्वी चाहता है तो कोई ‘प्रभु’ बनना चाहता है, तो कोई राष्ट्रपति, कोई धनवान राजा या कुछ और बनना चाहता है। जैसे कोई डाॅक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई वकील है और कोई जज है और ये सब लोग संसार में अपनी पहचान इन्हीं उपाधियों से बनाये रखना चाहते हैं।

परंतु जब तक हम इन उपाधियों से चिपके रहते हैं तब तक हम शरीर के प्रति आसक्त बने रहते हैं, क्योंकि ये उपाधियां शरीर से संबंधित होती हैं। लेकिन हम ये शरीर नहीं हैं, और इसकी अनुभूति होना ही आध्यात्मिक अनुभूति की प्रथम अवस्था है। उपाधियां तथा आसक्तियां हमारी कामवासना, इच्छा तथा प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चाह के कारण है। जब तक हम भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते तब तक भगवान के धाम, सनातन धाम को वापस जाने की कोई संभावना नहीं है। वह शाश्वत अविनाशी धाम उसी को प्राप्त होता है जो झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों द्वारा मोह ग्रस्त नहीं होता, जो भगवान की सेवा में लगा रहता है। ऐसा व्यक्ति सहज ही उस परम धाम को प्राप्त हो सकता है।

मान का अर्थ है स्वयं को पूजनीय व्यक्ति मानना, अपने महत्व का त्र्रुटिपूर्ण मूल्यांकन मान अथवा गर्व कहलाता है। ऐसा मानी व्यक्ति अपने ऊपर मान को बनाये रखने का अनावश्यक भार या उत्तरदायित्व ले लेता है। तत्पश्चात उसके पास कभी समय ही नहीं होता कि वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सके और अपने अवगुणों का त्याग कर सुसंस्कृत बन सके। इसी प्रकार मोह का अर्थ है अविवेक। (अज्ञान) बाह्य जगत की वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं आदि को यथार्थतः न समझना मोह है। इसके कारण हम वास्तविक जीवन का, तात्कालिक समस्याओं का सामना करने के स्थान पर अपने ही काल्पनिक जगत में विचरण करते रहते हैं। अतः आत्म ज्ञान के जिज्ञासुओं को इन अवगुणों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। मनुष्य को इस भ्रम से मुक्त होना चाहिये कि मानव समाज ही इस जगत का स्वामी है।

जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तियों से मुक्त हो जाता है तो वह पारिवारिक, सामाजिक मोह से छूट जाता है तब वह सुख, दुख, हर्ष, विषाद जैसे द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है तब उसका भगवान का शरणागत बनना संभव हो पाता है। केवल भगवान के ही शरण में रहने से भक्तों की अर्हता बदल जाती है। अर्थात मैं भगवान का हूं और भगवान मेरे हैं, मैं संसार नहीं हूं और संसार मेरा नहीं है। अतः जो भक्त अपना संबंध केवल भगवान के साथ ही मानते हैं वे नित्य निरंतर भगवान में ही स्थित रहते हैं। संसार का लक्ष्य रहने से ही संसार की वस्तु, परिस्थिति आदि की कामना होती है अर्थात ‘अमुक वस्तु’ व्यक्ति आदि मुझे मिल जाये’ इस तरह अप्राप्त (जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ) की कामना होती है। परंतु जिन भक्तों का सांसारिक वस्तु आदि को प्राप्त करने का उद्देश्य है ही नहीं वे कामनाओं से सर्वथा रहित हो जाते हैं।

भक्तों का यह अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियां, मन और बुद्धि और अहं ये सभी भगवान के ही हैं, भगवान के सिवा उनका अपना कुछ होता ही नहीं। उसे सुख व दुख दोनों ही स्थिति में एक जैसा व्यवहार करना चाहिए। वास्तव में सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति कभी होती ही नहीं जब तक एक इच्छा पूरी होती है तब तक दूसरी अनेक कामनाएं उत्पन्न हो जाती हैं फिर वह उनकी पूर्ति करने की चेष्टा में लग जाता है। कामनाओं (इच्छाओं) की पूर्ति के सुख भोग से नयी-नयी कामनाएं पैदा होती रहती हंै। संसार के संपूर्ण व्यक्ति, पदार्थ एक साथ मिलकर भी एक व्यक्ति की भी कामनाओं की पूर्ति नहीं कर सकते, फिर सीमित पदार्थों की कामना करके सुख की आशा रखना महान भूल ही है इसलिये कामनाओं की निवृत्ति करनी चाहिये न कि पूर्ति की चेष्टा, यही मनुष्यों के लिये परम शांति का उपाय है।



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