शक्ति सिद्धि का अभीष्ट काल नवरात्र

शक्ति सिद्धि का अभीष्ट काल नवरात्र  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 7737 | अप्रैल 2006

शक्ति सिद्धि का अभीष्ट काल नवरात्र पं. विपिन कुमार पराशर नवरात्र का अवसर ऋतुओं की संध्या का काल होता है। इस समय महाशक्ति के उस वेग की धारा जो सृष्टि के उद्भव और लय का कारण है, अधिक तीव्र होती है। योग में प्रवृत्त लोगों को इसका अनुभव होता है क्योंकि इस काल में इड़ा और पिंगला में वायु की गति समान होती है और ऐसी अवस्था में कुंडलिनी का जागरण तथा ऊध्र्व गति सरल हो जाती है। प्रत्येक हिंदू इन दिनों मां भवानी का स्मरण करता है।

शक्ति पीठों का मुख्य स्थल शक्ति त्रिकोण पीठ मायापुरी सर्वप्रथम शक्ति का अवतरण कनखल (मायापुरी क्षेत्र) में हुआ। ऐसा देवी भागवत पुराण में वर्णन आया है। राजा दक्ष की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके यहां मां भगवती पुत्री रूप में अवतरित हुईं तथा यही स्थल मां भगवती का दग्ध स्थल भी रहा है। मां भगवती ने शंकर जी का अपमान होने पर अपने शरीर को यज्ञकुंड में अर्पित किया तथा यहीं उनके शरीर से दश महाविद्याओं की उत्पत्ति हुई तथा उनके शरीर से काली, बगला, तारा आदि पैदा हुईं।

मायापुरी त्रिकोण में स्थित है, त्रिकोण को शास्त्रों में भगवती का हृदय स्थल और यंत्र भी कहा गया है। ब्रह्मा जी ने मंत्रों द्वारा मां मनसा को जन्म देकर शिवालिक पर्वत पर विराजमान किया तथा चंडी देवी का जन्म नील पर्वत पर हुआ और दोनों के बीच विराजमान विष्णु पत्नी श्री गंगा जी भक्तों को पवित्र करती हैं। इसी त्रिकोण कें केंद्र में मां भगवती की नाभि गिरी। यह स्थल मां भगवती के 52 शक्ति पीठों में से एक है तथा मायापुरी के नाम से विख्यात है।

इसी के दक्षिण में मात्र तीन किमी दूर मां भगवती का अवतरण एवं दग्ध स्थल दक्ष प्रजापति और सती की जन्म स्थली कनखल है। इस स्थल पर मां की सिद्धि फलदायक है। दुर्गापूजन के समय ध्यान रखे योग्य बातें - 

1. देवी की प्रतिष्ठा हमेशा सूर्य के दक्षिणायन रहने पर ही होती है, माघ और आश्विन मास में देवी की प्रतिष्ठा श्रेष्ठ है। 

2. एक घर में तीन शक्ति (देवी प्रतिमाओं) की पूजा नहीं होती। भगवती दुर्गा का आवाहन विल्वपत्र, विल्वशाखा, त्रिशूल या श्रीफल पर किया जा सकता है, दूर्वा से भगवती का पूजन कभी न करें।

नवरात्र में कलश स्थापन और अभिषेक का कार्य केवल दिन में होता है। ‘रुद्रभामल’ के अनुसार मध्य रात्रि में देवी के प्रति किया गया हवन शीघ्र फलदायी और सुखकर होता है। भगवती की प्रतिमा हमेशा रक्त वस्त्र से वेष्टित होती है तथा इसकी स्थापना उत्तराभिमुखी कभी नहीं होती। देवी उपासक के गले तथा गोमुखी में रुद्राक्ष अथवा मूंगे की माला अवश्य होनी चाहिए। देवी प्रतिमा की केवल एक प्रदक्षिणा होती है। देवी कवच से शरीर की रक्षा होती है।

यह मनुष्य की अल्पमृत्यु से रक्षा करता है और वह 100 वर्ष की स्वस्थ आयु प्राप्त करता है। कवच ‘शक्ति’ का बीज है, पूजन के पूर्व इसका पाठ अनिवार्य है, परंतु दुर्गा यज्ञ में कवच के रक्षा मंत्रों से हवन निषिद्ध है। अर्गला लोहे और काष्ठ की होती है जिसके लगाने से किवाड़ नहीं खुलते। घर में प्रवेश हेतु जितना महत्व अर्गला का है उतना ही महत्व सप्तशती के अर्गला पाठ का है।

कीलक को सप्तशती पाठ में उत्कीलन की संज्ञा दी गई है, इसलिए कवच, अर्गला और कीलक क्रमशः दुर्गापूजन से पूर्व अनिवार्य है। चतुर्थ अध्याय के मंत्र 24 से 29 की आहुति वर्जित है। इन चार मंत्रों की जगह ‘¬ महालक्ष्म्यै नमः’ से हविष्यान्न अर्पित करना चाहिए। हवनात्मक प्रयोग में प्रत्येक अध्याय के आदि और अंत के मंत्रों को शर्करा, घृत और लौंग से युक्त करके क्षीर की आहुति देनी चाहिए।

पाठांत मंे बीजाक्षरों एवं डामर मंत्रों से युक्त ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ फल प्राप्ति की कुंजी है। इसके बिना दुर्गा पाठ अरण्य रोदन के समान है। प्रत्येक अध्याय के आगे देवी के ध्यान दिए गए हैं। जैसा ध्यान हो उसी प्रकार के देवी के स्वरूप का चिंतन करना चाहिए। प्रारंभिक ध्यान का चित्र सामने होना चाहिए। विशेष कार्यों की सिद्धि के लिए अभीष्ट मंत्रों का संपुट दिया जाता है, यह संपुट दो प्रकार के होते हैं- उदय और अस्त।

वृद्धि के लिए उदय और अभिचार के लिए अस्त संपुट का प्रयोग करना चाहिए। दुर्गा सप्तशती के मंत्रों की उपासना और उच्चारण पद्धति गुरुमुख से सीखनी चाहिए, क्योंकि सेतु, महासेतु, मुखशोधन, कुल्लुका, शापोद्धार संजीवन, उत्कीलन, निर्मलीकरण आदि विषयों को गुरुकृपा से ही जाना जा सकता है, पुस्तक के पढ़ने मात्र से सिद्धि नहीं मिलती। सिद्धि तो शुद्ध संकल्प और गुरुकृपा पर ही निर्भर रहती है।

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