ब्रह्म इच्छा व वैज्ञानिक

ब्रह्म इच्छा व वैज्ञानिक  

ओशो
व्यूस : 2452 | अकतूबर 2010

ऐसा साधारणतः लगता है कि वैज्ञानिक खोज में व्यक्ति की अपनी इच्छा काम करती है; ऐसा बहुत ऊपर से देखने पर लगता है। गहराई से देखने पर ऐसा नहीं लगेगा। अगर जगत् के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को हम देखें तो हम बहुत हैरान हो जायेंगे कि सभी बड़े वैज्ञानिकों के अनुभव बहुत और हैं। काॅलेज, युनिवर्सिटीज में विज्ञान की जो धारणा पैदा होती है उसका, वैसा अनुभव उनका नहीं है। मैडम क्यूरी ने लिखा है कि मुझे एक सवाल कई दिनों से पीड़ित किये हुए है। उसे हल करती हूं और हल नहीं होता है। थक गयी हूं, परेशान हो गयी हूं, आखिर हल करने की बात छोड़ दी। और एक रात दो बजे वैसे ही कागजात टेबल पर अधूरे से छोड़कर सो गयी और सोच लिया कि अब इस सवाल को छोड़ ही देना है। थक गयी थी क्यूरी। लेकिन सुबह उठकर देखा कि आधा सवाल जहां छोड़ा है, वह पूरा हो गया है। कमरें में तो कोई आया नहीं, द्वार बंद थे। और कमरे में भी कोई आकर हल कर सकता था- जिसको मैडम क्यूरी हल नहीं कर सकती थी, इसकी भी संभावना नहीं है। नोबल-प्राइज-विनर थी वह महिला। घर में नौकर-चाकर ही थे, उनसे तो कोई आशा नहीं है। वह तो और बड़ा ‘मिरेकल’ (चमत्कार) होगा कि घर के नौकर-चाकर आकर हल कर दें।

लेकिन हल तो हो गया है और आधा ही छोड़ा था और आधा पूरा है। तब बड़ी मुश्किल में पड़ गयी। सब द्वार-दरवाजे देखे। कोई परमात्मा उतर आये, इसकी भी आस्था उसे नहीं हो सकती। कोई परमात्मा ऐसे ऊपर से उतर भी नहीं आया था। लेकिन गौर से देखा तो पाया कि बाकी अक्षर भी उसके ही हैं। तब उसे ख्याल आना शुरू हुआ कि रात वह नींद में, सपने में उठी है। उसे याद आ गया कि वह सपने में उठी है रात में, और उसने सवाल हल किया है। फिर तो उसकी यह व्यवस्थित विधि हो गयी कि जब कोई सवाल हल न हो, तब वह उसे तकिये के नीचे दबाकर सो जाये, रात उठकर हल कर ले। दिन भर तो मैडम क्यूरी ‘इण्डिवीजुअल’ थी, व्यक्ति थी। रात नींद में अहं खो जाता है, बूंद सागर से मिल जाती है। और जो हल हमारा चेतन मन नहीं खोज पाता, वह हमारा अचेतन, गहरे में जो परमात्मा से जुड़ा है, खोज पाता है। आर्किमिडीज एक सवाल हल कर रहा था, वह हल नहीं होता था। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। सम्राट ने कहा था, हल करके ही लाओ। आर्किमिडीज की सारी प्रतिष्ठा हल करने पर ही निर्भर थी, लेकिन थक गया था। रोज सम्राट का संदेश आता है कि कब तक हल करोगे। सम्राट को किसी ने एक सोने का बहुत कीमती आभूषण भेंट किया था।

लेकिन सम्राट को शक था कि धोखा दिया गया है, और सोने में कुछ मिला है। लेकिन बिना आभूषण को मिटाये पता लगाना है कि उसमें कोई और धातु तो नहीं मिली है। उस वक्त तक कोई उपाय नहीं था जानने का। और बड़ा था आभूषण । उसमें अगर कहीं बीच में अंदर कोई चीज डाल दी गयी हो, तो वजन बढ़ ही जायेगा। आर्किमिडीज थक गया, परेशान हो गया। फिर एक दिन सुबह अपने टब में लेटा हुआ है, पड़ा हुआ है। बस, अचानक, जब वह नंगा ही था, सवाल हल हो गया। भागा ! भूल गया ! आर्किमिडीज अगर होता, तो कभी न भूलता कि मैं नंगा हूं। सड़क पर आ गया। और चिल्लाने लगा, ‘यूरेका, यूरेका’’, - मिल गया, मिल गया। और भागा राजमहल की तरफ। लोगों ने पकड़ा कि क्या कर रहे हो? राजा के सामने नंगे पहुंच जाओगे? उसने कहा, ‘लेकिन यह तो मुझे ख्याल ही न रहा!’ वह जो आदमी सड़क पर पहुंच गया था नग्न, यह आर्किमिडीज नहीं था। आर्किमिडीज सड़क पर नहीं पहुंच सकता था। यह व्यक्ति नहीं था। और यह जो हल हुआ था सवाल, यह व्यक्ति की चेतना में हल नहीं हुआ था। यह निव्र्यक्ति-चेतना में हल हुआ था। वह ‘बाथरूम’ में पड़ा था अपने टब में - ‘रिलेक्स्ड’, शिथिल। ध्यान घट गया, भीतर उतर गया, सवाल हल हो गया।

जो सवाल स्वयं हल न हुआ था, वह क्या पानी में लेटने से हल हो जायगा? पानी में लेटने से क्या बुद्धि बढ़ जाती है? जो कपड़े पहने हल नहीं हुआ था, वह नंगे होने से हल हो जायेगा? नहीं; कुछ और घटना घट गई है। यह व्यक्ति नहीं रहा कुछ देर के लिए, अव्यक्ति हो गया; यह कुछ देर के लिए ब्रह्म के स्रोत में खो गया। हम जगत् के सारे बड़े वैज्ञानिकों के - आइंस्टीन के; मैक्सप्लांक के या एडिंगटन के या एडीसन के - अनुभव पढ़े तो इन सबका अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, वह हमने नहीं जाना। निरंतर ही ऐसा हुआ है कि जब हमनें जाना, तब हम न थे और जानना घटित हुआ है। यही उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, यहीं वेद के ऋषि कहते हैं, यही मुहम्मद कहते हैं, यही जीसस कहते हैं। अगर हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, तो उसका और कोई मतलब नहीं। उनका यह मतलब नहीं कि ईश्वर उतरा और उसने किताब लिखी। ऐसी पागलपन की बातें करने की कोई जरूरत नहीं हैं अपौरूषेय का इतना ही मतलब है कि जिस पुरूष पर यह घटना घटी, उस वक्त वह मौजूद नहीं था; उस वक्त ‘मैं’ मौजूद नहीं था। जब यह घटना घटी, जब यह उपनिषद् का वचन उतरा किसी पर और जब यह मुहम्मद पर कुरान उतरी और जब बाइबिल के वचन जीसेस पर उतरे, तो ‘वे’ मौजूद नहीं थे।

धर्म और विज्ञान के अनुभव, भिन्न-भिन्न नहीं हैं; हो नहीं सकते; क्योंकि अगर विज्ञान में कोई सत्य उतरता है, तो उसके उतरने का भी मार्ग वही है जो धर्म में उतरता है, जो धर्म के उतरने का मार्ग है। सत्य के उतरने का एक ही मार्ग है: जब व्यक्ति नहीं होता तो परमात्मा से सत्य उतरता है- हमारे भीतर जगह खाली हो जाती है, उस खाली जगह में सत्य प्रवेश करता है। दुनिया में कोई भी, चाहे कोई संगीतज्ञ, चाहे कोई चित्रकार, चाहे कोई कवि, चाहे कोई वैज्ञानिक, चाहे कोई धार्मिक, चाहे कोई ‘मिस्टिक’- जिन्होंने भी सत्य की कोई किरण पायी है, उन्होंने तभी पायी है, जब वे ‘स्वयं’ नहीं थे। यह धर्म को तो बहुत पहले से ख्याल में आ गया था। धर्म का अनुभव दस हजार साल पुराना है। दस हजार साल में धार्मिक फकीर को, धार्मिक - संत को, धार्मिक -योगी को यह अनुभव हुआ कि यह ‘मैं’ नहीं हूं। यह बड़ी मुश्किल बात है। जब पहली दफा आपके भीतर परमात्मा से कुछ आता है, तब ‘डिस्टिंक्शन’ (भेद) करना बहुत मुश्किल होता है कि आपका है कि परमात्मा का है। जब पहली दफा आता हे तब डांवाडोल होता है मन कि मेरा ही होगा और अहंकार की इच्छा भी होती है कि मेरा ही हो। लेकिन धीरे-धीरे जब दोनों चीजें साफ होती हैं और पता चलता है कि आप और इस सत्य में कहीं कोई ताल-मेल नहीं बनता, तब फासला दिखाई पड़ता है।, ‘डिस्टेंस’ दिखाई पड़ता है। विज्ञान की उम्र नयी है अभी - दो- तीन सौ साल। लेकिन दो-तीन सौ साल में वैज्ञानिक विनम्र हुआ है।

आज से पचास साल पहले वैज्ञानिक कहता था: जो खोजा, वह हमने खोजा।’ आज नहीं कहता। आज वह कहता है कि ‘हमारे सामथ्र्य के बाहर मालूम पड़ता है सब।’ आज का वैज्ञानिक उतनी ही ‘मिस्टिसिज्म’ की भाषा में बोल रहा है, उतने ही रहस्य की भाषा में, जितना संत बोले थे। जल्दी न करें - और सौ साल, और वैज्ञानिक ठीक वही भाषा बोलेगा, जो उपनिषद् बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा - जो बुद्ध बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी। बोलनी पड़ेगी इसलिए कि जितना-जितना सत्य का गहरा अनुभव होगा, उतना-उतना व्यक्ति का अनुभव क्षीण होता है। और जितना सत्य प्रगट होता है, उतना ही अहंकार लीन होता है। और एक दिन पता चलता है कि जो भी जाना गया है, वह परमात्मा का प्रसाद है; वह ‘ग्रेस’ है; वह उतरा है; उसमें मैं नहीं हूं। और जो-जो मैनें नहीं जाना उसकी जिम्मेवारी मेरी है, क्योंकि मैं इतना कमजोर था कि जान नहीं सकता था। और असत्य उतारता हो, तो ‘मैं’ की मौजूदगी जरूरी है। ब्रह्म- इच्छा से विज्ञान की खोज को बाधा नहीं पड़ेगी। जो खोज हुई है, वह भी अज्ञात के संबंध से हुई है; समर्पण से हुई है, और जो खोज होगी आगे, वह भी समर्पण से ही होगी। समर्पण के द्वार के अतिरिक्त सत्य कभी, किसी और द्वार से न आया है, न आ सकता है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.