ज्योतिष शिक्षा एवं शोध्

ज्योतिष शिक्षा एवं शोध्  

ब्रजेंद्र श्रीवास्तव
व्यूस : 5492 | जनवरी 2005

परिचर्चा का विषय अत्यंत सामयिक और दूरदर्शिता पूर्ण है। इसके निष्कर्ष ज्योतिष शिक्षा एवं शोध दोनों क्षेत्रों में रचनात्मक परिणाम लाने वाले सिद्ध होंगे, ऐसा दृढ़ विश्वास है क्योंकि आयोजक गण इस दिशा में कृतसंकल्प और सामथ्र्यवान दिख रहे हैं। ज्योतिष शिक्षा एवं शोध की दिशा क्या हो इस पर सम्यक रूप से विचार तभी संभव है जब हम इसके वर्तमान स्वरूप और ऐतिहासिक रूप पर संक्षिप्त किंतु विहंगम दृष्टि डालें। पहले ज्योतिष शिक्षा एवं शोध के ऐतिहासिक संदर्भ पर एक नजर।

भारत में शिक्षा एवं शोध दोनों की सुदीर्घ परंपरा थी, जिसमें खगोल एवं फलित दोनों का समावेश था। चैथी सदी में आर्यभट् ने ही विश्व को यह सिद्धांत दिया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट् से पूर्व वेदांग काल में (2000 ई. पूर्व से 300 ई.) गर्ग मुनि ने वेध से यह स्पष्ट किया कि सूर्य उत्तरायण के समय श्रविष्ठा (धनिष्ठा) पर तथा दक्षिणायन के समय आश्लेषा पर नहीं पहुंच रहा था। बराहमिहिर ने छठी सदी में शोध एवं वेध कर यह बताया कि अयन उनके काल में आश्लेषा के स्थान पर पुनर्वसु से आरंभ हो रहा है।

(पंच सिद्धांतिका, 3/21 बृहत्संहिता 3/1), महाभारत काल में अश्वमेध अध्याय 44/2 में श्रवण का उल्लेख शरद संपात बिंदु के रूप में किया गया है जो वेदांत काल में धनिष्ठा पर था। अर्थात वेध कार्य उस समय भी हो रहा था। पर मुंजालभट् (932 ई.) ने संपात बिंदु के पीछे खिसकने का सिद्धांत दिया एवं एक कल्प में पूरा भ्रमण काल 1,99,669 वर्ष बताया और अयनांश की वार्षिक दर 590.9 विकला बताई जो वर्तमान 500.29 विकला के करीब है।

ब्रह्मगुप्त, जो 628 ई. में हुए, ने वेध एवं शोध पर बहुत अधिक जोर दिया, उनके ग्रंथ ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ का अरबी में ‘अस् सिंध हिंद’ नाम से तथा ‘खंडखाद्यक’ का ‘अलअर्कंद’ नाम से अनुवाद हुआ था। भाष्कराचार्य (1150 ई.) का सिद्धांत शिरोमणि ग्रंथ शिक्षा एवं शोध का उत्तम स्रोत है। भाष्कराचार्य के बाद अर्थात 12वीं सदी से शोध कार्य शिथिल रहा, करण ग्रंर्थों एवं टीकाओं की रचना हुई पर 18वीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में सवाई जय सिंह द्वितीय ने खगोल के वेध के लिए जो वेधशालाएं पांच स्थानों पर बनाईं वे छह सौ वर्षों के अंध युग में - तत्कालीन जगन्नाथ ज्योतिषी के शब्दों में कहें तो - ”प्रकाशस्तंभ की तरह उत्पन्न हुईं।“ सवाई जय सिंह ने खगोल पर उल्लेखनीय शोध किया, जिसका महत्व इस बात से स्पष्ट होता है


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कि जिस समय यूरोप में केप्लर (1571-1630) ने ग्रहों के अण्डाकार कक्ष में भ्रमण का सिद्धांत ने उस समय उन्होंने स्वयं भी स्वतंत्र वेध से ग्रहों के अण्डाकार मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया था। गैलीलियो (1564-1642) ने टेलीस्कोप से गुरु ग्रह के उपग्रह देखे थे तो जय सिंह ने भी स्वतंत्र वेध से गुरु के ग्रह देखे। इन बातों का उल्लेख उनके ग्रंथ जिज मोहम्मद शाही में है, जिसकी पूर्ण प्रति फारसी में ब्रिटिश म्यूजियम लंदन में उपलब्ध है।

पर अठारहवीं सदी में अंग्रेजों के आते ही भारतीय ज्योतिष में वेध और शोध परंपरा नष्टप्राय ही हो गई और ज्योतिष संस्कृत पाठशालाओं में कर्मकांड, धर्मशास्त्र एवं दर्शन के साथ सिमट कर रह गया। अब ज्योतिष शिक्षा एवं शोध की वर्तमान स्थिति देखें। ज्योतिष कमोवेश आज भी संस्कृत पाठ्यक्रमों में धर्मदर्शन, कर्मकांड, काव्य आदि के साथ जुड़ा हुआ है। यद्यपि पूज्यपाद महामना मालवीय जी ने विश्वविद्यालय में ज्योतिष एवं खगोल के शिक्षण तथा शोध का प्रावधान किया किंतु इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका। अन्य संस्थाएं यथा डाॅ. संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय संस्कृत प्रतिष्ठान महर्षि विश्वविद्यालय तथा विभिन्न प्रादेशिक स्ंस्कृत महाविद्यालय ज्योतिष विषयक शिक्षण एवं शोध कार्य कर रही हैं।

इन सभी संस्थाओं में भी बदलते हुए परिवेश में ज्योतिष विज्ञान पर न तो विशेष ध्यान दिया जा सकता है और यही कारण है कि सामाजिक आवश्यकता, जन जिज्ञासा, वैज्ञानिक नए तथ्यों के समावेश और आलोचना के प्रतिकार जैसे मामुलोें में ज्योतिष प्रभावी ढंग से सक्रिय दिखाई नहीं देता। इन सभी संस्थानों के पाठ्यक्रम कमोवेश एक जैसे हैं। इनमें विवरणात्मक पद्धति अपनाई गई है। विश्लेषणात्मक पद्धति का प्रावधान और विषय वस्तु को लेकर यूनिट्स का संयोजन नहीं है।

उदाहरण के लिए व्यावसायिक शिक्षा को लें। इस संबंध में किन पुस्तकों के कौन से अध्यायों में रोजगार संबंधी सामग्री मिलेगी यह निर्धारित किया जाना चाहिए था ताकि सभी सामग्री का तुलनात्मक अध्ययन हो सके पर इसके स्थान पर पुस्तकों को ही प्रश्न पत्रों का आधार बनाया गया है। सूर्य सिद्धांत ग्रंथ को अपौरुषेय मान लिया गया और उसमें निश्चित अशुद्धियों का संस्कार न कर के उसी को आधार मान कर ज्योतिष को देखे जाने की प्रवृत्ति के कारण आधुनिक ज्ञान विज्ञान की कसौटी पर ज्योतिष को कसने में भी असमर्थता इन पाठ्यक्रमों में स्पष्ट देखी जा सकती है।

अंग्रेजी विषय के अंक परीक्षा में नहीं जोड़े जाते हैं। शोध कार्य, जो अधिकतर देव वाणी संस्कृत में उपलब्ध हैं, भले ही एकेडेमिक हों, जन उपयोगी नहीं बन सके हैं। संस्कृत धर्मशास्त्र की छाया में विकसित इस ज्योतिष शिक्षा-शोध प्रणाली के प्रति जन साधारण में जिज्ञासा भाव बिल्कुल ही पैदा नहीं हो सका है, जो किसी भी ज्ञान विज्ञान को प्राणदायक ऊर्जा देने के लिए परमाश्वयक होता है। ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा, अथातो धर्म जिज्ञासा’ के समान ज्योतिष जिज्ञासा भी इस प्रणाली से निःसृत नहीं हो सकी है।

पर इतना अवश्य है कि इस प्रणाली ने भारतीय ज्योतिष परंपरा को, बाधाओं के बावजूद, जीवित बनाए रख कर स्तुति योग्य कार्य किया है। अतएव दायित्व अब नई पीढ़ी पर है। यही विश्वविविद्यालय अनुदान आयोग की नई ज्योतिष नीति का उल्लेख भी आवश्यक है। आयोग की नई नीति के कारण विश्वविद्यालयों में ज्योतिष को एक विषय के रूप में पढ़ाने का मार्ग खुला है पर इसका अधिसंख्य विश्वविद्यालयों ने विरोध किया या इस पर चुप्पी साधे रखी। इसका एक बड़ा कारण ज्योतिष के प्रति पूर्वाग्रह है तथा दूसरा कारण पश्चिम का अनुकरण भी है।

जब पश्चिम के विश्वविद्यालय ज्योतिष विभाग चलाएंगे तभी वह अनुकरणीय होगा। हकीकत यह है कि यूरोप में चर्च के विरोध के कारण ज्योतिष शिक्षा बंद हुई थी। ग्यारहवीं सदी में स्पेन के विश्वविद्यालय में ज्योतिष पढ़ाया जाता था। वहां अरबी से लैटिन में अनूदित यूनानी खगोलविद् टाॅल्मी का अल्माजेस्ट आदि पढ़ाए जाते हैं। संस्कृत ज्योतिष ग्रंथ भी लैटिन में उस समय अनूदित हुए थे। इस्लाम ने ज्योतिष को कम पर खगोल को अधिक बढ़ावा दिया था। पर ईसाई चर्च की सत्ता स्थापित होते ही खगोल व ज्योतिष दोनों को दबाया गया। चर्च ने काॅपरनिकस, गैलीलियो आदि के शोध कार्य से भयभीत हो कर उन्हें डराया या मृत्युदंड दिया।


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13वीं सदी में दार्शनिक दांते एवं पादरी थामस एक्विनास ने यूरोप में ज्योतिष के विरुद्ध प्रचलित भाग्यवाद के कार्य कारण सिद्धांत को सुधारा तथा इसमें मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा और ईश्वर को भी स्थान दिया। इससे ज्योतिष को ईसाई धर्म में कुछ स्थान मिला। परिणामतः 14वीं सदी में पेरिस, फ्लोरेंस आदि में ज्योतिष को विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा पर सोलहवीं सदी में भू केंद्रित विश्व के स्थान पर जब सूर्य केंद्रित विश्व आ गया तो भूकेंद्रित ज्योतिष का आधार कमजोर पड़ गया।

इसी दौर में ज्योतिष वहां खगोल से अलग हो गया। ज्योतिष की मान्यता तो समाप्त हो गई पर खगोल की बनी रही। परंतु पश्चिम में अब ज्योतिष के प्रति नई चेतना आई है - एस्ट्रो बायोलाॅजी, एस्ट्रोजेनेटिक्स, बायोरिद्म आदि पर शोध कार्य से ज्योतिष का अन्य विज्ञानों के साथ संबंध स्थापित हो रहा है। पर देश के अधिसंख्य विश्वविद्यालय अभी भी ज्योतिष के प्रति उदासीनता दिखा रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नई नीति के अंतर्गत जिन विश्वविद्यालयों ने ज्योतिष विभाग स्थापित किया है वहां पहली समस्या पाठ्यक्रम की है तथा दूसरी शिक्षकों की कमी की है।

ज्योतिष कहीं तो संस्कृत विभाग में, कहीं इतिहास-पुरातत्व में और कहीं गणित विभाग में चल रहा है एवं समन्वयकों के माध्यम से चलाया जा रहा है। जो पाठ्यक्रम लागू किए गए हैं वे कमोवेश प्रथमा-मध्यमा-उत्तमा-शास्त्री-आचार्य परंपरा वाले हैं तथा इनमें आयोग के निर्देशानुसार परिष्कार नहीं किया गया है। इसलिए आज के वैज्ञानिक शोध के संदर्भ में ये प्रासंगिक नहीं बन पाए हैं। आयोग कोई एकीकृत पाठ्यक्रम भी नहीं दे पाया है।

आज स्कूलों में खगोल विज्ञान को लोकप्रिय बनाने पर जोर दिया जा रहा है। (उल्लेखनीय है कि विलियम हर्षल संगीतकार था पर तारों के अन्वेषण के कारण खगोलज्ञ बना और हर्षल या यूरेनस ग्रह का खोजकर्ता भी) फिजिक्स की सारी देन, इसके सारे सिद्धांत खगोल दर्शन से ही उपजे हैं। ब्रह्मांड विज्ञान पर भारतीय परंपरा और आधुनिक काॅस्मोलाॅजी का तुलनात्मक ज्ञान देने वाली यूनिट्स भी इन नए पाठ्यक्रमों में नहीं हैं। इसी प्रकार जेनेटिक्स, चिकित्सा विज्ञान, प्रसूति तंत्र, शेयर मार्केट जैसे जन उपयोगी विषयों का ज्योतिष के साथ समागम हो सके इस पर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है।

यद्यपि जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के पाठ्यक्रमों में ज्योतिष को आधुनिक विषयों से जोड़ कर शोध उन्मुखी तथा रोजगार उन्मुखी बनाने के प्रयास जारी हैं। वस्तुतः ज्योतिष को यदि लोकप्रिय बनाना है तो सबसे पहले इसे रोजगार उन्मुखी बनाना होगा। जिन विश्वविद्यालयों में ज्योतिष पढ़ाया जा रहा है उनमें प्राध्यापकों के चयन के मानदंड वही पुराने रखे गए हैं - विषय में स्नातकोत्तर या डाॅक्टरेट जबकि संक्रमण काल में उन ज्योतिर्विदों की सेवाएं ली जानी चाहिए जो सवतंत्र रूप से शोध करते रहे हैं।

ऐसा नहीं करने का परिणाम क्या होगा ? जब मिडिल, हाईस्कूल, प्रथमा, मध्यमा आदि वर्ग से आए प्राध्यापक ही योग्य माने जाएंगे तो आधुनिक विज्ञान उन्मुखी एवं रोजगार उन्मुखी पाठ्यक्रम न तो बनाए जा सकेंगे और न ही चलाए जा सकेंगे। इससे यथास्थितिवाद को ही बढ़ावा मिलेगा। इसलिए आयोग को चाहिए कि वह किसी भी विषय में न्यूनतम स्नातकोत्तर 55 प्रतिशत योग्यता वाले व्यक्ति को ही ज्योतिष में शोध करने की अनुमति दे। ज्योषि के आलोचक पूर्वाग्रह के कारण स्वयं तय कर लेते हैं


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कि ज्योतिष क्या है। उन्हें इसकी सार्थकता और निश्चयात्मकता पर संदेह है और वे जब-तब इस पर चोट कर देते हैं। इसमें गलती ज्योतिषी की है, उसे स्वयं नहीं मालूम कि ज्योतिष क्या है। विज्ञान आज पदार्थवाद और फिर ऊर्जावाद से एक कदम आगे चेतना ‘कांशसनेस’ की तरफ बढ़ चुका है और ज्योतिष वेद का अंग होने के कारण अपनी चेतना और विराट ब्रह्मांड की चेतना के बीच एक सेतु है। आज स्टीफन हाॅकिन्स जैसे ब्रह्मांड विज्ञानी विश्व को जड़ नहीं बल्कि चेतन मानना चाहते हैं

और इस ब्रह्मांड की व्याख्या निश्चयात्मकता के सिद्धांत से नहीं, अनिश्चयात्मकता के सिद्धांत से करना चाहते हैं। फिर जीव तो चेतन ही है। नए ज्योतिष को इसका भी समाधान खोजना होगा और यह कार्य वैश्वीकरण के इस दौर में वे विश्वविद्यालय या अन्य संस्थान ही कर पाएंगे जहां मैकाले की रूढ़िवादी शिक्षा से अलग विचारधारा पर काम किया जा रहा हो। इसी से ज्योतिष को नया जीवन मिलेगा।



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