विदेश गमन में प्रभावी ज्योतिषीय कारक

विदेश गमन में प्रभावी ज्योतिषीय कारक  

निर्मल कुमार झा
व्यूस : 8010 | जनवरी 2006

पूर्व में लोग विदेश यात्रा जलयान के द्वारा किया करते थे, जिसमें जलीय राशियों कर्क, वृश्चिक और मीन तथा चंद्रमा की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। किंतु आज लोग अधिकतर वायु मार्ग से विदेश गमन करते हैं, अतः वायव्य राशियों मिथुन, तुला और कुंभ की भूमिका पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। आकाश तत्व के कारक ग्रह गुरु की विवेचना भी आवश्यक है।

राशियां अपने स्वभाव के अनुरूप यात्रा की प्रवृत्ति देती हैं। स्वभाव से राशियां तीन प्रकार की होती हैं- चर, द्विस्वभाव और स्थिर। मेष, कर्क, तुला और मकर चर, मिथुन, कन्या, धनु और मीन द्विस्वभाव तथा वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुंभ स्थिर राशियां हैं। चर राशियां अपने स्वभाव से चलायमान होने के कारण यात्रा की प्रवृत्ति बनाती हैं। विशेषतः जलीय चर राशियों कर्क और मकर की भूमिका विदेश यात्रा की प्रबल मानसिकता बनाने वाली होती है। द्विस्वभाव राशियों में धनु और मीन विदेश यात्रा को प्रेरित करती हैं। उनमें कभी यात्रा करने का भाव उत्पन्न होता है तो कभी स्थिर रहने का। जहां तक स्थिर राशियों का प्रश्न है, अपने स्वभाव से स्थिरता प्रदान करने वाली होने के कारण भ्रमण की प्रवृत्ति स्थिर बना देती हैं। केवल वृश्चिक राशि विदेश यात्रा की प्रवृत्ति प्रदान करती है। और इन राशियों के जातक यात्राएं कम पसंद करते हैं। वे अपने जन्म स्थान तक ही सीमित रहते हैं।

कतिपय नक्षत्र विदेश गमन हेतु व्यक्ति को उत्साहित करते हंै। जो नक्षत्र विदेश गमन हेतु उत्प्रेरक का कार्य करते हंै, वे हैं शनि के नक्षत्र पुष्य, अनुराधा एवं उत्तरभाद्रपद, राहु के आद्र्रा, स्वाति तथा शतभिषा, गुरु के पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वभाद्र तथा चंद्र के रोहिणी, हस्त और श्रवण। इनके अलावे अश्विनी, मृगशिरा, चित्रा तथा रेवती नक्षत्र भी विदेश गमन की प्रवृत्ति प्रदान करते हंै। विदेश यात्रा के निर्णय के क्रम में विभिन्न भावों पर दृष्टिपात करना अपेक्षित है। इस क्रम में लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम् और द्वादश भावों पर विचार आवश्यक होता है। लग्न से किसी व्यक्ति के स्थान की जानकारी मिलती है कि वह अपने जन्म स्थान में होगा या कहीं अन्यत्र जाएगा। चर लग्न राशि वाले लोग अपनी भ्रमणकारी प्रवृत्ति के कारण अपने जन्म स्थान से दूर-दराज चले जाते हैं और स्थिर राशि वाले अपने जन्म स्थान में ही पड़े रहते हैं।

द्विस्वभाव वालों में उभय गुणों भ्रमणकारी तथा स्थिर होने के कारण वे यदाकदा भ्रमण करते हैं, फिर अपने जन्म स्थान को वापस भी आ जाते हैं। इसलिए विदेश गमन के निर्णय में लग्न पहलुओं का बारीकी से अध्ययन आवश्यक है। साथ ही सप्तम, नवम और द्वादश भावों के अंतर संबंध पर विचार भी आवश्यक है। तृतीय भाव से अल्प यात्रा अर्थात अपने देश की सरहदों से सटे देशों में यात्रा का योग बनता है। पंचम भाव नवम से नवम होने के कारण विदेश गमन करने के विचार, इच्छा तथा मानसिकता को जन्म देने वाला होता है। सप्तम भाव विदेश में वसने या स्वदेश वापस आने संबंधी पहलुओं को दर्शार्ता है। किसी व्यक्ति के विदेश भ्रमण करने और विदेश में निवास करने में अष्टम भाव एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण भाव है। विदेश गमन के प्रसंग में नवम एवं द्वादश भाव के परिप्रेक्ष्य में इसका विचार अपेक्षित है।

अष्टम भाव नवम से द्वादश तथा द्वादश से नवम होने का योग बनाता है। समुद्र यात्रा या जल यात्रा का स्रोत या जलयान द्वारा होने वाली यात्राओं का कारक अष्टम भाव ही है। अष्टम राशि वृश्चिक, जो जलीय राशि है, की भूमिका विदेश यात्रा में काफी हद तक प्रभावी होती है। नवम भाव दूर गमन, परिवर्तन और देश-देशांतर गमन का कारक है। नवम भाव विदेश गमन की व्यापक भूमिका तैयार करने वाला होता है। द्वादश भाव विलगाव का भाव है। यह भाव देश-देशांतर का कारक तत्व प्रदान कर किसी जातक को अपने परिजनों, कुटुंब, समाज सभी से विलग करने वाला होता है। विभिन्न भावों द्वारा विदेश गमन पर विचार के बाद विदेश में प्रवास बनने के योगों पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है। जब लग्न और लग्नेश का चतुर्थ ग्रह के साथ संबंध हो और विदेश गमन का योग हो तो व्यक्ति विदेश यात्राएं तो करता है, किंतु विदेश में न रहकर स्वदेश में ही वास करता है।


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चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश जब द्वादश भाव के प्रभाव में होते हैं, तो व्यक्ति अपना समय विदेश में व्यतीत करता है और अपना वास स्थान स्वदेश में ही रखता है। लग्न से स्थान का बोध होता है। जब लग्न और लग्नेश द्वादश भाव में हों अथवा लग्नेश एवं द्वादशेश की युति हो तो जातक का वास स्थान विदेश में ही होता है। विदेश गमन का योग: रज्जुयोग-सर्वेश्चरेस्थितै रज्जुः । अर्थात रज्जुयोग होने से विदेश गमन का योग बनता है। अरनप्तिय सुरूपाः परदेश स्वास्थ्य भागिये भपुजाः । रज्जु प्रभवा सदा लथिता। पापकर्तरी योग भी विदेश गमन का योग बनाता है। कर्तरीयोग पापाः प्रदेश जाताः । क्लीवयोग से प्रवासी होने का योग बनता है- क्लीवे प्रवासी। व्यमेशे पाप संयुक्ते व्यये पापा समन्विते। पापग्रहेण संदृष्टे देशान्तर गतः । उत्तरकालामृत में विदेश गमन के सप्तम भाव विदेश का एवं राहु से विदेश गमन का कारकत्व बनता है। किंतु सप्तमेश एवं राहु का योग निर्वासन की स्थिति में बनता है। निर्वासन प्राचीनकाल में राज दंड के फलस्वरूप दिया जाता था।

 विदेश गमन के परिपे्रक्ष्य में लिया जाता है। लग्नस्वामिनी रिःपगे तु विपत्ति कूरे सचन्द्रे कुजे। जातो सौ परदेशगः सुखधन त्यागी दरिद्रो भवेत। अर्थात जब लग्न दशम भाव में तथा चंद्रमा मंगल के साथ युति में हो, अशुभ राशि में हो तथा वह दशम भाव में हो तो जातक को विदेश जाना पड़ता है तथा वह सुख और धन को त्याग देता है और दरिद्र हो जाता है। अष्टमेश एवं नवमेश की युति, अष्टमेश एवं द्वादशेश की युति या इन भावेशों के बीच गृह परिवर्तन विदेश गमन का योग बनाता है। जब चतुर्थ भाव और चतुर्थेश की युति किसी ग्रह के साथ हो, साथ ही चंद्रमा भी किसी पाप ग्रह की युति या दृष्टि में हो और अधिकतर ग्रह चर या द्विस्वभाव राशियों में हों तो जातक पढ़ने के लिये विदेश जाता है। यदि इन योगों के अतिरिक्त दशमेश एवं षष्ठेश का संबंध हो या दशम पर षष्ठेश का प्रभाव हो तो जातक विदेश में ही सेवा में लग जाता है

क्योंकि दशम भाव कर्म को इंगित करता है और षष्ठेश सेवा को। दशमेश एवं द्वादशेश के बीच का संबंध धंधे एवं पेशे से होता है। जब द्वादशेश स्वगृह या मूल त्रिकोण में हो या उच्च का हो, साथ ही विदेश गमन का अन्य ज्योतिषीय योग हो तो व्यक्ति विदेश गमन धनोपार्जन हेतु करता है। सप्तमेश और लग्नेश की द्वादश भाव में युति हो या सप्तमेश, लग्नेश एवं द्वादशेश का अंतर संबंध हो तो विदेश गमन के बाद विदेश में ही विवाह का योग बनता है। सप्तमेश और दशमेश का संबंध हो, दशमेश सप्तमस्थ हो या सप्तमेश दशम में हो या दशम और सप्तम भावाधिपतियों के बीच गृह परिवर्तन हो तो विदेश में कारोबार का योग बनता है। जो लोग विदेश गमन व्यापार या धंधे के लिए करते हैं, उनकी जन्म पत्रिका में विदेश गमन के अन्य ज्योतिषीय कारणों के साथ-साथ नवम भाव एवं नवमेश पर शनि का प्रभाव होना आवश्यक होता है अर्थात नवमेश शनि के प्रभाव में होता है, अर्थात नवम भाव में शनि होता है।


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जो अध्ययन या प्रशिक्षण हेतु विदेश जाते हैं, उनकी जन्म कुंडली में विदेश गमन के अन्य कारणों के साथ-साथ नवम स्थान में गुरु होता है या नवमेश गुरु के प्रभाव में होता है। वे विदेश की सभ्यता संस्कृति को अपनाते हुए पाये जाते हैं। वे उनमें काफी रुचि लेते हैं। वे धर्म प्रचार कार्यार्थ विदेश जाते हैं। जो चिकित्सा हेतु विदेश जाते हैं, उनकी जन्म कुंडली में विदेश गमन के अन्य योगों के साथ-साथ षष्ठेश नवम में होता है। नवमेश का षष्ठेश में होना या षष्ठेश एवं नवमेश के बीच गृह परिवर्तन योग होना स्वास्थ्य लाभ और चिकित्सा हेतु विदेश गमन का द्योतक है। जो लोग विदेश छवि-छटा एवं प्रकृति के मनोरम दृश्य का अवलोकन करने और आनंद उठाने हेतु जाते हैं, उनकी जन्म कुंडली में नवम या नवमेश या द्वादश या द्वादशेश शुक्र के प्रभाव में होता है, साथ ही विदेश गमन का अन्य ज्योतिषीय कारण भी हो। जो अनुसंधान कार्य या संगोष्ठी में भाग लेने हेतु विदेश जाते हैं

उनकी जन्म कुंडली में ज्योतिष के अन्य कारणों के साथ-साथ बुध का नवम और नवमेश पर प्रभाव होना आवश्यक है। जो लोग कूटनीतिक कारणों से विदेश जाते हैं, उनकी जन्मकुंडली में अन्य ज्योतिषीय योगों के साथ-साथ एकादशेश एवं दशमेश की नवमेश के साथ युति तथा नवम स्थान का प्रभाव होने से होता है। जो धर्म प्रचार या आध्यात्मिक कार्य हेतु विदेश गमन करते हैं उनकी कुंडली में अन्य कारणों के साथ-साथ नवम् और नवमेश पर गुरु और शनि का प्रभाव होता है। जब नवम एवं द्वादश भाव पाप ग्रहों से आक्रांत हांे तो विदेश गमन का योग बनता है। इस योग का जातक तस्कर, जासूसी आदि कार्यों के लिए विदेश जाता है। जो विदेश गमन साहसिक कार्यों हेतु करते हैं, उनकी कुंडली में अन्य ज्योतषीय योगों के साथ-साथ मंगल नवम में होता है और नवमेश मंगल के प्रभाव में होता है। रवि के नवम स्थान में होने से व्यक्ति अधिक समय विदेश में ही व्यतीत करता है। उसकी इच्छा होती है कि वह देश-देशांतर भ्रमण करे तथा विदेश के बातों की जानकारी ले। चंद्रमा के नवम में होने से भ्रमण की प्रवृत्ति तो बनती ही है,

साथ ही घर से दूर बसने की प्रवृत्ति भी होती है। जब लग्न, लग्नेश और नवांश चर राशि में हों तो जातक विदेश यात्रा के द्वारा धन संपन्न होता है। जब लग्न पर चर राशि हो, लग्नेश चर राशि में हो तथा लग्न पर चर राशि से किसी ग्रह की दृष्टि पड़े तो व्यक्ति विदेश जाकर धनोपार्जन करता है। नवम भाव में बृहस्पति हो तथा शनि और चंद्रमा का दृष्टि हो तो वह विदेश जाकर अपना घर बनाकर रहता है। जब नवम भाव में चार ग्रहों शुक्र, बुध, गुरु और शनि का योग बने तो व्यक्ति विदेश जाकर धन का उपार्जन करता है।

विदेश गमन के उपर्युक्त योगों के विवेचन के साथ-साथ यह देखना भी आवश्यक है कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति कैसी है। उसके स्वास्थ्य की स्थिति कैसी है, विदेश गमन अर्थाभाव में संभव नहीं है। टिकट और यात्रा पर एवं विदेश में आने वाले खर्च पर भी ध्यान देना आवश्यक है। मात्र विदेश गमन के योग रहने से ही विदेश भ्रमण संभव नहीं है।


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