अचला सप्तमी व्रत

अचला सप्तमी व्रत  

व्यूस : 4294 | फ़रवरी 2009
अचला सप्तमी व्रत (02 फरवरी 2009) पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज 'ब्रजवासी' अचला सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। अचला सप्तमी का व्रत माघ मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी को किया जाता है। यह सप्तमी पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, आरोग्य, पुत्र, सप्तसप्तमी आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है और अनेक पुराणों में उन नामों के अनुरूप व्रत की अलग-अलग विधियों का उल्लेख है। यहां भविष्य पुराण में वर्णित इस व्रत की कथा, माहात्म्य और विधान संक्षेप में प्रस्तुत है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा- 'भगवन्! आपने उत्तम फलप्रदाता 'माघ स्नान' का विधान बताया था, परंतु जो प्रातःकाल स्नान करने में असमर्थ हों वे क्या करें? स्त्रियां अति सुकुमारी होती हैं, वे किस प्रकार माघ स्नान का कष्ट सहन कर सकती हैं? इसलिए आप कोई ऐसा उपाय बताएं कि थोड़े से परिश्रम के द्वारा नारियों को रूप, सौभाग्य, संतान और अनंत पुण्य की प्राप्ति हो।' भगवान श्रीकृष्ण बोले- 'महाराज! मैं अचला सप्तमी व्रत का विधान बतलाता हूं। यह व्रत करने से व्रती को सब उत्तम फल प्राप्त हो सकते हैं। इस संबंध में आप एक कथा सुनें। मगध देश में इंदुमती नाम की एक अति रूपवती वेश्या रहती थी। एक दिन वह प्रातःकाल बैठी-बैठी संसार की अनवस्थिति (नश्वरता) का इस प्रकार चिंतन करने लगी- 'देखो! यह विषय रूपी संसार-सागर कैसा भयंकर है, जिसमें डूबते हुए जीव जन्म, मृत्यु, जरा जैसे जल-जंतुओं से पीड़ित होते हुए भी किसी प्रकार पार नहीं उतर पाते। ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित यह प्राणी समुदाय अपने किए गए कर्मरूपी ईंधन एवं कालरूपी अग्नि से दग्ध कर दिया जाता है। प्राणियों के जो धर्म, अर्थ, काम से रहित दिन व्यतीत होते हैं, वे वापस कहां आते हैं? जिस दिन स्नान, दान, तप, व्रत, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण आदि सत्कर्म नहीं किए जाते, वह दिन व्यर्थ होता है। पुत्र, स्त्री, घर, क्षेत्र तथा धन आदि की चिंता में डूबे मनुष्य की सारी आयु बीत जाती है और मृत्यु आकर दबोच लेती है।' इस प्रकार कुछ निर्विण्ण-उद्विग्न होकर सोचती-विचारती हुई वह वेश्या महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गई और उन्हें प्रणाम कर हाथ जोड़कर कहने लगी- 'भगवन्! मैंने न तो कभी कोई दान किया, न जप, तप, व्रत, उपवास आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान किया और न ही शिव, विष्णु आदि की आराधना की। अब मैं इस भयंकर संसार से भयभीत होकर आपकी शरण में आई हूं, आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतलाएं जिससे मेरा उद्धार हो जाए।' वशिष्ठ जी बोले- 'वरानने! तुम माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को स्नान करो। इस स्नान से रूप, सौभाग्य आदि सभी फल प्राप्त होते हैं। षष्ठी के दिन एक बार भोजन करके सप्तमी को प्रातः काल ही ऐसे नदीतट अथवा जलाशय पर जाकर दीपदान और स्नान करो, जिसके जल को किसी ने स्नान कर हिलाया न हो, क्योंकि जल मल को प्रक्षालित कर देता है। बाद में यथाशक्ति दान भी करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।' वशिष्ठ जी का ऐसा वचन सुनकर इंदुमती अपने घर वापस लौट आई और उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार उसने स्नान-ध्यान आदि कर्मों को संपन्न किया। सप्तमी के स्नान के प्रभाव से चिरकाल तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई वह देह त्याग के पश्चात् देवराज इन्द्र की सभी अप्सराओं में प्रधान के पद पर अधिष्ठित हुई। यह अचला सप्तमी संपूर्ण पापों का प्रशमन करने वाली तथा सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाली है।' राजा युधिष्ठिर ने पूछा- 'भगवन्! अचला सप्तमी व्रत का माहात्म्य तो आपने बतलाया, कृपाकर अब स्नान विधि भी बतलाएं। भगवान श्री कृष्ण बोले- 'महाराज! षष्ठी के दिन एकभुक्त होकर सूर्य नारायण का पूजन करें। यथासंभव सप्तमी को प्रातःकाल ही उठकर नदी या सरोवर पर जाकर अरुणोदय वेला में स्नान करने की चेष्टा करें। स्वर्ण, चांदी अथवा ताम्र के पात्र में कुसुंभ रंग से रंगी हुई बत्ती और तिल का तेल डालकर दीपक प्रज्वलित करें। उस दीपक को सिर पर रखकर हृदय में भगवान सूर्य का इस प्रकार ध्यान करें। नमस्ते रुद्ररूपाय रसानाम्पतये नमः। वरुणाय नमस्तेऽतु हरिवास नमोऽस्तु ते॥ यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु। तन्मे रोगं च शोकं च माकरी हन्तु सप्तमी॥ जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके। सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले॥ (उत्तरपर्व 53। 33-35) तदनंतर दीपक को जल के ऊपर तैरा दें, फिर स्नान कर देवताओं और पितरों का तर्पण करें और चंदन से कर्णिका सहित अष्टदल-कमल बनाएं। उस कमल के मध्य में शिव-पार्वती की स्थापना कर प्रणव मंत्र से पूजा करें और पूर्वादि आठ दलों में क्रम से भानु, रवि, विवस्वान्, भास्कर, सविता, अर्क, सहस्र किरण तथा सर्वात्मा का पूजन करें। इन नामों के आदि में '¬' कार, चतुर्थी विभक्ति तथा अंत में 'नमः पद लगाएं, यथा-'¬ भानवे नमः', ¬रवये नमः' इत्यादि। इस प्रकार पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि उपचारों से विधिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा कर-'स्वस्थानं गम्यताम्' कहकर विसर्जित कर दें। बाद में ताम्र अथवा मिट्टी के पात्र में गुड़ और घृत सहित तिल चूर्ण तथा स्वर्ण का ताल पत्राकार एक कान का आभूषण बनाकर पात्र में रख दें। अनंतर रक्त वस्त्र से उसे ढककर पुष्प-धूपादि से पूजन करें और वह पात्र दुर्भाग्य तथा दुःखों के विनाश की कामना से किसी ब्राह्मण को दे दें। तदनंतर 'सपुत्रपशुभृत्याय मेऽर्कोऽयं प्रीयताम्' पुत्र, पशु, भृत्य-समन्वित मेरे ऊपर भगवान सूर्य प्रसन्न हो जाएं ऐसी प्रार्थना करें। फिर गुरु को वस्त्र, तिल, गो और दक्षिणा देकर तथा शक्ति के अनुसार अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करें। जो लोग इस विधि से अचला सप्तमी को स्नान करते हैं, उन्हें संपूर्ण माघ स्नान का फल प्राप्त होता है। व्रत के रूप में इस दिन नमक रहित एक समय एकान्न का भोजन अथवा फलाहार करना चाहिए। मान्यता है कि अचला सप्तमी का व्रत करने वाले को वर्ष भर सूर्य व्रत करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है। जो अचला सप्तमी के माहात्म्य का श्रद्धा-भक्ति से वाचन, श्रवण तथा उपदेश करेगा, वह उत्तम लोक को अवश्य प्राप्त करेगा।' भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व एंव उत्सवों की विशेष प्रतिष्ठा है। यहां प्रति दिन कोई-न-कोई व्रत, पर्व या उत्सव मनाया जाता है। अचला सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, अतः स्त्री-पुरुषादि सभी को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए।



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