वास्तु शास्त्र एवं धर्म बाबू लाल साहू (शास्त्री) भारतीय संस्कृति के अनुसार वास्तु केवल भवन तकनीक ही नहीं बल्कि धार्मिक भी है: वास्तु भवन: निर्माण तकनीक (आर्किटेक्चर) एवं वास्तु विज्ञान दो भिन्न-भिन्न विधाएं हैं। एक आर्किटेक्ट एक उŸाम भवन तो बना सकता है, परंतु उसमें रहने वाले प्राणी के सुखी जीवन की गारंटी नहीं दे सकता। वास्तु विद्या इस बात की गारंटी देती है। संसार में जितनी भी मानव सभ्यताएं हैं, उनमें भवन-निर्माण को एक पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि है। जब तक हम इस धार्मिक रहस्य को नहीं समझ पायेंगे हम वास्तु के मर्म को कभी नहीं जान पायेंगे। यदि भवन निर्माण-कला में से वास्तु विज्ञान को निकाल दिया जाये तो उसकी कीमत शून्य है। यह केवल ईंट, पत्थर, लोहे, सीमेंट का ढेर है और कुछ नहीं। भवन-निर्माण एक धार्मिक कृत्य है जिसमें पुरुषार्थ चातुष्ट्य की सिद्धि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रहस्य को समझना भी आवश्यक है। Û धर्म: व्यक्ति को धर्म लाभ होना चाहिए। भवन में निवास करने वाले प्राणी को आध्यात्मिक व आत्मिक सुख मिलना चाहिए। उसमें निवास करने वाले व्यक्ति को आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक त्रिविध तापों से मुक्ति मिलनी चाहिए। उसमें निवास करने वाले प्राणी को देखते ही आम आदमी का सिर श्रद्धा एवं विश्वास से स्वतः ही उनके चरणों में झुक जाना चाहिए। घर में कभी किसी से झगड़ा न हो, कलह न हो, नैसर्गिक वैर भाव न हो। आपने सुना होगा कि प्राचीन ऋषि, मुनियों के आश्रम क्षेत्र में आते ही हिंसक प्राणी अपना नैसर्गिक वैर भाव भूल जाते थे। शेर व बकरी एक साथ तथा सांप व नेवला एक साथ बैठे होते थे। यह वास्तु के धार्मिक लाभ का प्रत्यक्ष उदाहरण है। Û अर्थ: गृह प्रवेश के साथ ही धन बढ़ना चाहिए, व्यक्ति ऊंचा उठना चाहिए। ऐसा नहीं हो कि व्यक्ति ने मकान बनाया और कर्ज में दबता चला गया। व्यक्ति आर्थिक रूप से दिवालिया हो जाये तो समझें कि भवन का वास्तु खराब है। इसके विपरीत उसके आय के स्रोत बढ़ने चाहिए, उसकी मार्केट वैल्यू, साख, प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि होनी चाहिए। तभी भवन-निर्माण की सार्थकता है।