रोग निवारण के अनुभूत उपाय

रोग निवारण के अनुभूत उपाय  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 5849 | जून 2006

परिवार में किसी सदस्य को रोग हो जाता है तो गृह से सुख विदा हो जाता है। यदि आप ज्योतिषी हैं या ज्योतिष प्रेमी तो यह भली-भांति जान लें कि संधि सदैव पीड़ादायक होती है। दशा की संधि, भाव की संधि, राशि की संधि और नक्षत्र की संधि का ध्यान रखें। इन संधियों की स्थिति में जातकों को रोग या कष्ट अवश्य होता है। हमारे देश में सूर्य संक्रांति का विशेष महत्व है। संक्रांति की संधि पर वर्षा, प्राकृतिक प्रकोप, रोग आदि होते हैं।

दिन व रात्रि की संधि गोधूलिकाल में पूजा-दानादि की पररंपरा है जिससे आगत कष्ट से बचा जा सके। नवजात शिशु के लिए प्रथम तीन वर्ष, संधि स्थल, गोचरवश चंद्र जन्म नक्षत्र में आए तो रोगादि कष्ट होते हैं। दशांतर्दशा षष्ठ, अष्टम, द्वादश, मारक ग्रहों या कुंडली के अशुभ ग्रहों से संबंधित हो तो रोग होने की संभावना रहती है। जातक को रोगों की भविष्यवाणी करते समय उसे कभी यह कहकर हतोत्साहित न करें कि रोग जटिल व भयंकर है। रोग निवारण के अनुभूत उपाय निम्न प्रकार हैं।

- भारतीय संस्कृति में गणेश जी का विशेष महत्व है। गणपति प्रथम आराध्य देव और विघ्नविनाशक हैं। रोग से मुक्ति के लिए इस मंत्र का जप करने को कहें-¬ गं गणपतये नमः। इस मंत्र का तीन माला जप प्रतिदिन तीन सप्ताह तक करें। मंत्र का संकल्प सहित जप शत्रु बाधा, रोग, बाधा, कष्ट आदि से मुक्ति में अति प्रभावशाली है और इनका शमन करता है।

- गाय के शरीर में देवता का वास माना गया है। चैके की पहली रोटी या अपने भोजन का पहला ग्रास गाय को देने को कहें।

- गायत्री गात (शरीर) की रक्षा करती है। रोगी को इस मंत्र का जप बताएं-¬ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं्, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। गायत्री मंत्र का एक माला जप छह मास तक रोज करने से असाध्य व जटिल रोग भी दूर हो जाते हैं। मनोबल व आध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाने से स्वास्थ्य, सुख व सम्मान बढ़ता है।


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- महामृत्युंजय मंत्र का जप करने को कहें, यह रोगनाश का सर्वोत्तम उपाय है। ¬ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् इस वैदिक मंत्र का एक माला जप सोलह सप्ताह तक प्रतिदिन करें।

- ¬ महाबीज मंत्र है। कुछ बीज मंत्र इस प्रकार हैं-ऐं माया बीज है, जो सरस्वती, वाणी एवं बुद्धि के लिए है। श्रीं लक्ष्मी बीज है, जो समृद्धि व संपन्नता के लिए है। क्लीं काम बीज है जो विवाह, काम सुख या अभीष्ट प्राप्ति के लिए है। ह्रीं शक्ति बीज है, जो स्वास्थ्य, आरोग्य लाभ व शत्रु पर विजय पाने के लिए है। इनका जप प्रणव (¬) व नमः लगाकर करना लाभप्रद है।

- पंचाक्षरी मंत्र ¬ नमः शिवाय का ग्यारह माला जप नित्य करने से अनिष्टकारी ग्रहों की शांति होती है। यह मंत्र तीन या छह मास के संकल्प से करें। साथ में नंगे पांव शिव मंदिर जाकर शिवलिंग पर 40 दिन तक बिना नागा जल चढ़ाएं। मनोकांक्षा पूर्ण होगी व शरीर स्वस्थ व रोगमुक्त होगा।

- ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरांतकारी, भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शांतिकरा भवन्तु नामक नवग्रह पूजन मंत्र का जप अरिष्ट ग्रहों को शांत करके सुखी, समृद्ध एवं स्वस्थ करता है। तीन सप्ताह तक इस मंत्र का एक माला जप संकल्प सहित नित्य करने से अनिष्टकारी ग्रहों की शांति होती है।

- सूर्यादि नवग्रह के तांत्रिक मंत्रों का जप करने से भी शरीर रोग मुक्त होता है। प्रत्येक ग्रह का जप कम से कम एक सौ आठ एवं अधिकतम उसकी जप संख्या तुल्य संकल्प सहित करने से लाभ होता है। सर्वप्रथम यह निश्चित करें कि किन ग्रहों के कारण रोग हो रहा है। यह कुंडली देखकर जान सकते हैं। तदुपरांत उस ग्रह की अशुभता दूर करने के लिए मंत्र जप कर सकते हैं। इसके करने से पूर्व किसी योग्य दैवज्ञ से सलाह अवश्य ले लेनी चाहिए। नवग्रहों के तांत्रिक मंत्र आसानी से उपलब्ध हैं।

- रोग का कारण आयुर्वेद में त्रिदोष को बताया गया है। त्रिदोष पर नियंत्रण से भी रोग से मुक्ति मिलती है। त्रिदोष पर स्वर रीति से नियंत्रण किया जा सकता है। इड़ा नाड़ी (चंद्र स्वर) अर्थात वाम नासिका का स्वर पित्त नाशक होता है, पिंगला नाड़ी (सूर्य स्वर) अर्थात दक्षिण नासिका का स्वर कफ नाशक होता है एवं सुषुम्ना नाड़ी अर्थात वाम या दक्षिण नासिका का स्वर परिवर्तित करते रहने से वात दोष दूर होता है।


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मान लें कि आपको दर्द है एवं आपका वाम स्वर चल रहा है। आप तुरंत उस स्वर को बदल कर दक्षिण स्वर कर दें, तो आपको दर्द से तत्काल राहत मिलेगी। यदि आपको वात सता रहा है तो आप जल्दी-जल्दी दायां-बायां स्वर बदलेंगे तो आपको वातविकार से तत्काल राहत मिलेगी। इसी प्रकार यदि आपको कफ सता रहा है तो आपका वाम स्वर चल रहा होगा। आप तुरंत बदलकर दायां स्वर चला लें, आपको कफ विकार से राहत मिलेगी। यदि पित्त सता रहा है तो भी दायां स्वर चला लें। कहने का तात्पर्य यह है कि पीड़ा के समय जो स्वर चल रहा हो उसे तुंरत बदल दें-ऐसा करने पर राहत अवश्य मिलेगी।

- पका हुआ कद्द,ू जो पीला हो चुका हो, खोखला करके तीन या छह मास में धर्मस्थल के अंदर रखकर आएं। रोग कठिन हो तो इसे निरंतर कई दिन तक करना चाहिए।

- रोगी के सिरहाने तांबे के दो सिक्के रखकर अगले दिन प्रातः भंगी को बिना नागा तेंतालिस दिन तक दान करें। उक्त दो उपाय रोगी नहीं कर सके तो उसका कोई रक्त संबंधी उसके ठीक होने का संकल्प करके कर सकता है।

- औषधि स्नान करके भी लाभ उठा सकते हैं। औषधि स्नान भी रोग से मुक्ति दिलाता है। औषधि स्नान की रीति इस प्रकार है। मिट्टी की एक कोरी हांडी में साबुत चावल, सरसों काली, नागरमोथा, हल्दी साबुत, सूखा आंवला, दूब, बिल्व पत्र सभी को 125 ग्राम की मात्रा में ले लें।

तुलसी पत्र 27 पत्ते, केसर 3 धागे, पंचगव्य, लाल चंदन, शमी पत्र, गुग्गल, थोड़ा गोबर, गोरोचन और 150 ग्राम काले तिल लेकर स्नान के दिन की पूर्व रात्रि में जल में भिगोकर रख दें। सुबह सभी सामग्री किसी डंडी से चलाकर भली-भांति मिश्रित कर लें। इस हांडी में से एक कटोरी जल लेकर स्नान वाले जल में मिलाकर स्नान करें। स्नान करते समय नवग्रह का ध्यान, मंत्र का जप व स्तोत्र का पाठ अवश्य करने चाहिए।

हांडी में पुनः एक कटोरी जल डालकर ढक दें। इस प्रकार नियमित स्नान करने पर 21 दिन में स्नान का फल मिलेगा और सर्वबाधाओं एवं रोगों से मुक्ति मिलेगी।



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