वास्तु शास्त्र की प्रभावोत्पादकता

वास्तु शास्त्र की प्रभावोत्पादकता  

मनोज कुमार
व्यूस : 4281 | फ़रवरी 2017

‘वास्तु’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वस’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है रहना। अतः वास्तुशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जिसका संबंध किसी स्थल एवं भवन के प्रारूप एवं निर्माण से है। यह शहर, महल एवं कम्प्लेक्स आदि के निर्माण का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। इस शास्त्र का प्रमुख उद्देश्य यह है कि मानव समुदाय एवं प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो।

संपूर्ण क्षेत्र को 8 हिस्सों में विभाजित किया जाता है: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, उत्तर-पूर्व, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम तथा प्रत्येक दिशा के एक स्वामी हैं जिनको दिक्पाल कहा जाता है। दिक्पाल निम्नांकित हैं: दिशा स्वामी पूर्व इन्द्र दक्षिण यम पश्चिम वरुण उत्तर कुबेर दक्षिण-पूर्व अग्नि दक्षिण-पश्चिम र्नैति उत्तर-पश्चिम वायु उत्तर-पूर्व ईशान वैदिक ग्रंथों में इन आठ दिक्पालों की अलग-अलग ऋचाएं दी गई हैं। इन्द्र देवताओं के राजा हैं।

सूर्य पूर्वी क्षितिज पर उदित होता है। अतः पूर्व दिशा को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है तथा इसके उपरांत उत्तर है जो कुबेर की दिशा है जिन्हें धन का स्वामी कहा गया है। पूर्व स्वास्थ्य, शील, जीवनवृत्ति एवं यश का बिंदु है। उत्तर धन, नाम एवं समृद्धि का बिंदु है। उत्तर का खगोलीय महत्व भी है क्योंकि यह ध्रुवतारा अथवा ध्रुव नक्षत्र को निर्दिष्ट करता है।

जब कभी भी हम किसी भूखंड अथवा बिल्डिंग की वास्तु की चर्चा करते हैं, हम सबसे पहले उत्तर एवं पूर्व बिंदु को चिह्नित करते हैं तथा इसके उपरांत बिल्डिंग का मानचित्र इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। वास्तु शास्त्र की चर्चा हमारे धार्मिक साहित्यों में भी की गई है। वास्तु का उल्लेख रामायण में भी कई स्थानों पर मिलता है। वास्तु शास्त्र के नियम घरों, महलों, कम्पलेक्स, लोकोपयोगी भवनों इत्यादि के लिए अलग-अलग हैं।

रामायण के सुंदरकांड में किसी राज्य की राजधानी के निर्माण, राजधानी के प्रारूप तथा राजा के महल के संदर्भ में चर्चा की गई है। जिसे आज हम लंग स्पेस अथवा बीच के भूभाग के रूप में जानते हैं इसकी चर्चा ग्रंथों में उद्यान अथवा वाण के रूप में की गई है। इनमें कहां पर कौन से वृक्ष लगाये जाने चाहिए इसका भी उल्लेख किया गया है।

जल के फव्वारे, कुएं जिसमें जल स्तर तक जाने की सीढ़ियां लगी हों, तालाब, झील एवं आस-पास की हरियाली के संबंध में भी स्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया गया है। लंका में रावण के साम्राज्य, भूखंड का कुल क्षेत्र तथा उस समय रहने वाले लोगों की कुल जनसंख्या की कल्पना करें, इसके बारे में भी महर्षि बाल्मिकी ने विस्तृत चर्चा की है। इन सबके बावजूद भी लंका का प्रारूप अद्भुत तरीके से बनाया गया था।

यह रामायण के सर्ग 6, 7 श्लोक 1 से 8 के सर्ग 9 एवं श्लोक 1 से 8 के सर्ग 15 में सुंदरकांड में देखा जा सकता है। आजकल हम यह तर्क करते हैं कि शहर में जनसंख्या काफी अधिक बढ़ गई है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नियामक प्राधिकरण जैसे-तैसे निर्माण की अनुमति दे।

दृढ़ एवं खुली मानसिकता वाले लोग जो वास्तुशास्त्र को मानते हैं उन्हें योजना विभाग में जो कि निर्माण का पूरी तरह नियंत्रण करता है, बिना किसी डर, भय एवं हिचक के अधिकारियों को अपनी वास्तु सम्मत योजना प्रस्तुत करनी चाहिए। यदि ऐसा किया जाता है तो अधिकारी भी इन बातों की अवहेलना नहीं कर ‘वास्तु’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वस’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है रहना।

अतः वास्तुशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जिसका संबंध किसी स्थल एवं भवन के प्रारूप एवं निर्माण से है। यह शहर, महल एवं कम्प्लेक्स आदि के निर्माण का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। इस शास्त्र का प्रमुख उद्देश्य यह है कि मानव समुदाय एवं प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो। संपूर्ण क्षेत्र को 8 हिस्सों में विभाजित किया जाता है: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, उत्तर-पूर्व, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम तथा प्रत्येक दिशा के एक स्वामी हैं जिनको दिक्पाल कहा जाता है।

दिक्पाल निम्नांकित हैं: दिशा स्वामी पूर्व इन्द्र दक्षिण यम पश्चिम वरुण उत्तर कुबेर दक्षिण-पूर्व अग्नि दक्षिण-पश्चिम र्नैति उत्तर-पश्चिम वायु उत्तर-पूर्व ईशान वैदिक ग्रंथों में इन आठ दिक्पालों की अलग-अलग ऋचाएं दी गई हैं। इन्द्र देवताओं के राजा हैं। सूर्य पूर्वी क्षितिज पर उदित होता है। अतः पूर्व दिशा को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है तथा इसके उपरांत उत्तर है जो कुबेर की दिशा है जिन्हें धन का स्वामी कहा गया है। पूर्व स्वास्थ्य, शील, जीवनवृत्ति एवं यश का बिंदु है। उत्तर धन, नाम एवं समृद्धि का बिंदु है।

उत्तर का खगोलीय महत्व भी है क्योंकि यह ध्रुवतारा अथवा ध्रुव नक्षत्र को निर्दिष्ट करता है। जब कभी भी हम किसी भूखंड अथवा बिल्डिंग की वास्तु की चर्चा करते हैं, हम सबसे पहले उत्तर एवं पूर्व बिंदु को चिह्नित करते हैं तथा इसके उपरांत बिल्डिंग का मानचित्र इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।

वास्तु शास्त्र की चर्चा हमारे धार्मिक साहित्यों में भी की गई है। वास्तु का उल्लेख रामायण में भी कई स्थानों पर मिलता है। वास्तु शास्त्र के नियम घरों, महलों, कम्पलेक्स, लोकोपयोगी भवनों इत्यादि के लिए अलग-अलग हैं। रामायण के सुंदरकांड में किसी राज्य की राजधानी के निर्माण, राजधानी के प्रारूप तथा राजा के महल के संदर्भ में चर्चा की गई है। जिसे आज हम लंग स्पेस अथवा बीच के भूभाग के रूप में जानते हैं इसकी चर्चा ग्रंथों में उद्यान अथवा वाण के रूप में की गई है।

इनमें कहां पर कौन से वृक्ष लगाये जाने चाहिए इसका भी उल्लेख किया गया है। जल के फव्वारे, कुएं जिसमें जल स्तर तक जाने की सीढ़ियां लगी हों, तालाब, झील एवं आस-पास की हरियाली के संबंध में भी स्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया गया है। लंका में रावण के साम्राज्य, भूखंड का कुल क्षेत्र तथा उस समय रहने वाले लोगों की कुल जनसंख्या की कल्पना करें, इसके बारे में भी महर्षि बाल्मिकी ने विस्तृत चर्चा की है।

इन सबके बावजूद भी लंका का प्रारूप अद्भुत तरीके से बनाया गया था। यह रामायण के सर्ग 6, 7 श्लोक 1 से 8 के सर्ग 9 एवं श्लोक 1 से 8 के सर्ग 15 में सुंदरकांड में देखा जा सकता है। आजकल हम यह तर्क करते हैं कि शहर में जनसंख्या काफी अधिक बढ़ गई है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नियामक प्राधिकरण जैसे-तैसे निर्माण की अनुमति दे।

दृढ़ एवं खुली मानसिकता वाले लोग जो वास्तुशास्त्र को मानते हैं उन्हें योजना विभाग में जो कि निर्माण का पूरी तरह नियंत्रण करता है, बिना किसी डर, भय एवं हिचक के अधिकारियों को अपनी वास्तु सम्मत योजना प्रस्तुत करनी चाहिए। यदि ऐसा किया जाता है तो अधिकारी भी इन बातों की अवहेलना नहीं कर पाएंगे। जो लोग गृह अथवा भवन का निर्माण करना चाहते हैं वे इस बात को आगे बढ़ाएं तथा वास्तुनुरूप निर्माण के लिए लड़ाई लडें़।

एक बार यदि शुरूआत होगी तो यह बात धीरे-धीरे पूरे देश में लागू की जा सकेगी। मंदिर निर्माण में भी वास्तुशास्त्र तथा आगमशास्त्र का अनुपालन नहीं किया जाता। कई प्रकार के आगमशास्त्र हैं। शैवागम, वैखानस आगम, पंचरात्रागम कुछेक उदाहरण हैं। मंदिरों में मूर्ति निर्माण के लिए आगमशास्त्र के साथ शिल्पशास्त्र का भी अनुपालन किया जाना चाहिए। ये सभी स्वतंत्र शास्त्र हैं। इन शास्त्रों का यहां उल्लेख पाठकों को हमारी महिमापूर्ण एवं समृद्ध परंपरा एवं संस्कृति को समझाने के उद्देश्य से किया गया है।

प्राचीन साहित्यों का अध्ययन जिसमें ज्योतिष शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र एवं वास्तु शास्त्र इत्यादि सन्निहित हैं, हमारे प्राचीन ऋषियों की दूर दृष्टि का रहस्योद्घाटन करते हैं जिसका आधार काफी गहरा था तथा जीवन की वास्तविकता एवं मूल्यों के साथ अंतरंगता से जुड़ा हुआ था जो कि आधुनिक समय में स्वप्न में भी नहीं सोचा जा सकता है।

हिंदू प्रणाली का सावधानीपूर्वक परीक्षण जो कि वास्तुशास्त्र में हिंदुओं की उपलब्धियों को समझने के लिए आवश्यक है, यह प्रकट करता है कि ये सारे क्रिया-कलाप बिल्कुल सटीक एवं सकारात्मक रूप से वैज्ञानिक थे, जिनका प्रमुख लक्ष्य आध्यात्मिक था तथा महत्वपूर्ण स्तरों पर राजनीतिक कारणों से यह बेड़ियों में बंध गया। यद्यपि कि अवबोधन, पर्यवेक्षण एवं शोध सच्चाई को जानने के महत्वपूर्ण आधार हैं किंतु वैज्ञानिकता के नाम पर आवश्यक चीजों का बहिष्कार कर देने से ज्योतिष, वास्तु आदि विषयों का विकास अवरूद्ध होता चला गया।

आज हम ऐसे लोगों से घिरे हैं जो एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति के कट्टर समर्थक हैं। जो कोई भी ईमानदारी से इस समाज से बाहर आकर आध्यात्मिक वैज्ञानिकता की बात करता है उन्हें लोग अंधविश्वासी कहते हैं। जैसा कि ह्वाइट हेड ने कहा है: ‘हमारे वैज्ञानिक जो अपनी परंपरा निष्ठा में कैद हैं वे किसी भी चीज को जो उनके तर्क में उचित नहीं बैठता उसकी अवहेलना कर रहे हैं तथा अपनी अंधी प्रणाली में ही खोए हुए हैं।

’ गैलिलियो, डेस्काटर्स एवं न्यूटन के समय से ही पाश्चात्य वैज्ञानिक संस्कृति से भारत में संशय उत्पन्न हुआ है तथा भारतीय आधुनिक तार्किक ज्ञान से दिग्भ्रमित हुए हैं। वस्तुनिष्ठता एवं परिमाणन के चक्कर में अंतप्र्रज्ञा एवं विषयनिष्ठ ज्ञान की पूरी तरह से अवहेलना हुई है। अंगे्रजी भाषा में शिक्षित अनेक भारतीय जब अपनी उच्च बौद्धिक योग्यता के स्तर को प्रदर्शित करते हैं तो वे सामान्यतः अपनी स्वयं की वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक विरासत को भूल जाते हैं जिसका एक महत्वपूर्ण अंग वास्तु है।

इनमें से कई चैतन्य नहीं हैं क्योंकि उन्हें नहीं पढ़ाया गया है अथवा उन्होंने नहीं सीखा है कि यह प्राचीन भारतीयों का ही मौलिक योगदान था जिससे आम विषय एवं खासकर विज्ञान भी प्रचलित हुए किंतु यह पाश्चात्य प्रभाव से स्वतंत्र रहा। जब कभी भी ज्योतिष, वास्तु, प्रश्न इत्यादि के महत्व की बात की जाती है तो विवादास्पद एवं अपमानजनक विचार वैज्ञानिकता एवं तार्किकता के नाम पर इन विषयों के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं।

विरोधाभास यह है कि इन आलोचकों में से ही कई लोग स्वयं ज्योतिष एवं वास्तु के शरण में आते हैं जब उनका स्वयं का हित शामिल होता है। एक ओर तार्किकता एवं विश्लेषणात्मकता के बीच यह भेद तथा दूसरी ओर अंतप्र्रज्ञा एवं ज्ञान कभी भी प्राचीन भारतीय चिंतन का चरित्रचित्रण नहीं करता है।

हमें समझना चाहिए कि वैज्ञानिकों के द्वारा किसी भी कार्य का आधार तथा उसे कानून के संज्ञान में लाना सर्वसम्मत नहीं रहा है। इसका उदाहरण 16वीं सदी में यूरोप में देखा जा सकता है जब चर्च की प्रधानता थी तथा गैलिलियो ने एक ऐसे सिद्ध ांत की व्याख्या की जो उस समय के वैज्ञानिकों को मान्य नहीं था तथा इसके लिए उन्हें दंड मिला।

सौभाग्य से हमें यह भय नहीं है कि हमारे साथ भी ऐसा होगा क्योंकि आए दिन वैज्ञानिकों के दावों पर प्रश्न चिह्न लगते रहते हैं। हम उस धरती के निवासी हैं जहां दो हजार वर्ष पूर्व भी चार्वाक (भौतिकवादी एवं नास्तिक) तथा आचार्यगण दोनों एक साथ रहते थे तथा अक्सर इन दोनों के बीच बौद्धिक युद्ध चलता रहता था तथा अंततः चार्वाकवादी विचारधारा का शमन हुआ। अतः यह सभी भारतीय देशभक्तों की जिम्मेवारी है कि वे अपने प्राचीन वैज्ञानिक विरासत का अध्ययन करें, इसे समझें तथा इस पर गर्व महसूस करें।

आधुनिकता के नाम पर इनका बहिष्कार न करें। ऋषियों एवं आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा के बीच महत्वपूर्ण अंतर यह है कि पहला अत्यधिक विशद्, अखंड, पवित्र एवं आध्यात्मिक है जबकि दूसरा अस्थायी, भंजक, लघुकृत एवं यांत्रिक है। भारतीय परंपरा के अनुसार 18 ऋषियों जैसे भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, माया इत्यादि ने वास्तु विज्ञान की स्थापना की है। अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों में से विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र, समरंगण सूत्रधार, मंडन-सूत्रधार, राजसिंह वास्तु, दिपार्णव, शिल्परत्न एवं मयमत की गणना होती है।

दूसरी भी अन्य रचनाएं हैं जिनका आधार सामान्यतः कोई दूसरे शास्त्रीय ग्रंथ हैं। वास्तु का उल्लेख आगमों में भी हुआ है जैसे - कर्रूक आगम, सुप्रभेद आगम, वैखानस आगम इत्यादि तथा तांत्रिक ग्रंथों जैसे -हयशीर्ष तंत्र, किरानस तंत्र, एवं पुराणों जैसे- अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण एवं विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी वास्तु का उल्लेख हुआ है।

यहां यह उल्लेख करना आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि डाॅ. राॅबर्ट पिनोटी प्प् जो कि एक इतालवी वैज्ञानिक थे, इन्होंने वल्र्ड स्पेस काॅन्फ्रेंस में यह उल्लेख किया कि वास्तु के शास्त्रीय ग्रंथ समरंगण सूत्रधार में 230 दोहे सिर्फ विमान के निर्माण के सिद्धांतों की तथा शांति एवं युद्ध में उनके उपयोग की व्याख्या करते हैं।

डाॅ. पिनोटी ने कहा कि हिंदू ग्रंथों का परीक्षण करना अधिक तर्कसंगत होगा न कि इस परंपरा को सिर्फ अंधविश्वास कहकर अस्वीकार कर देना। वास्तु के सिद्धांत कमोबेश संपूर्ण भारत में एक जैसे हैं जिनकी मौजूदगी अनगिनत वर्षों से रही है तथा जो सांस्कृतिक एकता के चिह्न हैं। वास्तु ने हजारों वर्षों से अपनी परंपरा को जीवंत रखा है तथा यह आज भी उतना ही तर्कसंगत एवं महत्वपूर्ण है जितना कि यह अपने उद्भव काल में था। जैन एवं बौद्ध धर्म के भी अपने वास्तु ग्रंथ हैं जिनमें गौतमियम, बौद्ध मातम एवं चैत्य महत्वपूर्ण हैं। वास्तु शिल्प की परंपरा मौलिक रूप में विशुद्ध रूप से भारतीय है।

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