संतान सुख

संतान सुख  

व्यूस : 11638 | जून 2012
संतान-सुख प्रश्न: कुंडली के आधार पर कैसे जानें कि जातक को संतान सुख में बाधा है या नहीं, साथ ही यह कैसे जानें कि संतान कब होगी तथा क्या होगी? यदि संतान सुख में बाधा है तो क्या उपाय किये जाने चाहिए, विस्तृत जानकारी दें। अपने वंश को आगे बढ़ाने की इच्छा प्रत्येक मानव के मन में विद्यमान रहती है और इसके लिए वे सतत् प्रयत्नशील भी रहते हैं। भारतीय संस्कृति में विवाह संस्कार के मूल में ही यही भावना निहित है। जैसे कि संबंधित शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है कि रजोदर्शन के बाद स्त्री व पुरुष के संसर्ग से संतान की उत्पŸिा होती है। परंतु कईबार ऐसा भी देखने में आता है कि चिकित्सकीय दृष्टि से स्त्री तथा पुरुष के स्वस्थ रहने के बाद भी संतानोत्पŸिा नहीं हो पाती है। तब मनुष्य अपने पूर्वजन्म में किए गए कर्मों को इस कष्ट का कारण मानता है और दैवज्ञों का आश्रय ग्रहण करता है। अगर जातक की कुंडली में निम्नलिखित संतान बाधा/प्रति बन्धक योगों में से कोई योग सम्मिलित हो तो उस जातक को संतान सुख में बाधा की संभावना होती है (प्रमुखतः पंचम भाव के स्वामी, पंचमस्थ ग्रह, उनका स्वामित्व तथा संतान कारक वृहस्पति की स्थिति पर सम्यक रूप से विचार करने से ज्ञात होता है कि संतान होगी या नहीं, संतान सुख में बाधा है या नहीं)। Û यद्यपि वृहस्पति पुत्र कारक है, परंतु इनका पंचम स्थान में स्थित होना अनिष्टकारक है। पंचम भाव में धनु और मीन का वृहस्पति स्वगृही होता है, मकर का नीचस्थ तथा कर्क का उच्च। परंतु इन सब स्थितियांे में पंचमस्थ वृहस्पति अनिष्टकारी होता है। मीन का वृहस्पति रहने से बहुत कम संतान होती है, धनु का वृहस्पति रहने से बहुत चिंता के बाद संतान होती है, कर्क और कुंभ का वृहस्पति रहने से प्राय संतान होती ही नहीं और यदि पंचमस्थ वृहस्पति शुभ-दृष्ट भी न हो तो पुत्र का अभाव होना ही है। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह भी है कि यदि किसी भाव का कारक उसी भाव में स्थित है तो अशुभ फल देता है। वृहस्पति संतान कारक है यद्यपि वृहस्पति की पंचम भाव में स्थिति कुछ स्थितियों में अति शुभ है परंतु पुत्र के लिए अशुभ है। (कारको भाव नाशाय) यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश पंचमगत है अथवा पंचमाधिपति नीच अथवा अस्त हो अथवा पंचमस्थ ग्रह नीच या अस्त हो तो इन योगों में संतान के लिए अरिष्ट होता है। तृतीयाधिपति तृतीय में, लग्न में, पंचम में अथवा धन स्थान में रहने से यदि और कोई शुभ योग न हो तो संतान योग में बाधा होती है और प्रायः संतान की मृत्यु होती है। यदि द्वितीयेश और पंचमेश बलहीन हो तथा अशुभ भावगत होकर पाप दृष्ट हो तो सततः प्रयत्न करने पर भी संतान का जन्म नहीं होता और वंश क्षय होता है। वृष लग्न के लिए बुध तथा वृश्चिक लग्न के लिए वृहस्पति द्वितीयेश व पंचमेश है। अतः इनकी स्थिति यदि संबंधित जन्मांगों में पाप ग्रस्त हो तो संतान नहीं होती (संतान संबंधी विषयों पर विचार करना चाहिए। लग्न और भाग्य का बली होना अनेक सयोंगों के प्रतिफल को नष्ट करने की क्षमता रखता है)। यदि पंचमेश से 6, 8 या 11 भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो पुत्र जन्म होना संभव नहीं प्रायः मृत संतान पैदा होती है इसे कुलक्षय योग भी कहा जाता है। यदि पंचमेश और द्वितीयेश निर्बल हों और पंचम स्थान पर पाप ग्रह की दृष्टि हो तो जातक को अनेक स्त्री रहने पर भी पुत्र का सौभाग्य नहीं होता है। यदि लग्नेश, सप्तमेश, पंचमेश और वृहस्पति सबके सब दुर्बल हो तो जातक संतानहीन होता है। यदि पंचम स्थान में पापग्रह हों और पंचमेश नीच हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक संतानहीन होता है। यदि पंचम स्थान में पाप ग्रह बैठा हो और पंचमेश पाप ग्रहों से घिरा हो और शुभ ग्रह की दृष्टि या योग न हो तो जातक को संतान बाधा होती है। यदि वृहस्पति पाप ग्रहों से घिरा हो और पंचमेश निर्बल हो और शुभ ग्रह की दृष्टि या योग से वर्जित हो तो जातक को संतान-बाधा का सामना करना पड़ता है। पंचमाधिपति जिस राशि में रहे उससे षष्ठ, अष्टम और द्वादश स्थान में पाप ग्रह के रहने से पुत्र के लिए अति अनिष्टकर है। यदि तीनों स्थानों में पाप ग्रह हों, तो जातक को प्राय मृत संतान की संभावना रहती है। इसी प्रकार पंचम स्थान से 6, 8, 12वें भाव में पापग्रहों के रहने से पुत्र-प्राप्ति के लिए अशुभ होता है तथा इसे कुलक्षय योग की संज्ञा दी गयी है। यदि दशम स्थान में चंद्रमा, सप्तम स्थान में राहू, चतुर्थ स्थान में पाप ग्रह और लग्नेश बुध के साथ हो, तो जातक को संतान बाधा होती है। यदि पंचम, अष्टम तथा द्वादश तीनों भावों में पाप ग्रह बैठे हों, तो संतान बाधा का योग बनता है। यदि चंद्रमा और वृहस्पति लग्न में स्थित हों और मंगल एवं शनि की उन पर पूर्ण दृष्टि हो, तो भी संतान बाधा योग बनता है। यदि कुल पाप ग्रह चतुर्थ स्थान में स्थित हों तो संतान बाधा का योग निर्मित होता है। यदि पंचमेश नीचगत हो, शत्रु गृही हो, अस्त अथवा 6, 8 या 12वें स्थान में हो, तो संतान बाधा योग निर्मित होता है। इसी प्रकार यदि पंचमस्थ ग्रह नीचस्थ, शत्रु ग्रही, अस्त ग्रह अथवा 6 8 व 12वें स्थान का स्वामी हो, तो संतान का अभाव होता है। यदि पंचम भाव पाप राशिगत हो और उसमें तीन या अधिक पाप ग्रह हों और शुभ दृष्टि न हो, तो जातक को संतान अभाव होता है। लग्न, बृहस्पति और चंद्रमा तीनों से पचंम स्थान पाप ग्रहों से घिरे हों अथवा उन तीनों स्थानों के स्वामी 6, 8, 12वें भाव में हों तो संतान बाधा का एक बलशाली योग निर्मित होता है। यदि 6, 8, 12वें भाव का स्वामी पंचमगत हो अथवा पंचमाधिपति 6, 8, 12वंे में हों अथवा पंचमेश 6, 8, 12वंे भाव का भी स्वामी हो तो संतान के लिए अनिष्ट होता है। पंचम भाव में केतु हो और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक की पत्नी का रजोधर्म बंद हो जाता है, परिणामतः संतान बाधा रहती है। पति-पत्नी दोनों का जन्मकालीन शनि तुला राशिगत् हो तो संतान सुख नहीं होता। संतानोत्पŸिा के बारे जानने के लिए/ अगर संभव हो तो स्त्री-पुरुष दोनों की कुण्डलियों पर विचार आवश्यक है। संतान तभी होती है जब कुण्डली में संतान योग होगा अतः कोई संतान बाधा योग नहीं होगा। इन दोनों तथ्यों की पुष्टि के पश्चात दोनों कुण्डलियों में ग्रह स्थिति एवं गोचर में ग्रहों के भ्रमण देखने के साथ-साथ यह भी ध्यान रखें कि विशोŸारी महादशा तथा अंतर्दशा किन ग्रहों की चल रही है। इन सब बातों का विचार करके ही संतान जन्म के बारे में ठीक निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। निम्नलिखित में से किसी की महादशा/अंतर्दशा चल रही हो तो संतानोत्पŸिा संभव है। संतान का जन्म लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश, वृहस्पति या जिन ग्रहों से पंचम भाव दृष्ट है अथवा जिनकी स्थिति पंचम भाव में हो, तो इनकी दशा अंतर्दशा में संतान का सुख प्राप्त होता है। चंद्र से पंचम स्थान के स्वामी या नवम स्थान के स्वामी की दशा/ अंतर्दशा में। नवमेश की दशा/अंतर्दशा में। वृहस्पति जिस ग्रह के नवांश में हों इसकी दशादि में, पंचमेश के नवांश के अधिपति की दशा-अंतर्दशा में, जो ग्रह पंचम में हो या पंचम पर दृष्टिपात कर रहा हो की दशा-अंतर्दशा में संतान लाभ होता है। गोचर ग्रहों से संतानोत्पŸिा का समय निर्धारण: लग्नेश ग्रह गोचर में अपनी उच्च राशि अथवा स्वराशि में भ्रमण करता है, पंचमेश के साथ हो जाता है, तथा जन्मांग में पंचमेश जिस राशि में स्थित है जब लग्नेश गोचरवश वहां पहुंचता है तो संतानोत्पŸिा संभव होती है। जन्मांग में वृहस्पति ग्रह जहां स्थित है उससे त्रिकोण में जब गोचर का वृहस्पति, लग्नेश या पंचमेश भ्रमण करे तो संतान लाभ होता है। यदि गुरु गोचरवश पंचम, एकादश, नवम या लग्न में भ्रमण करे तो भी संतान लाभ की संभावना होती है। जब गोचरवश लग्नेश, पंचमेश तथा सप्तमेश एक ही राशि में भ्रमण करे तो संतान लाभ होता है। गुरु से पंचम स्थान का स्वामी जिस राशि/नवांश में हो, उससे त्रिकोण मंे गोचरवश जब गुरु आये तो संतान योग निर्मित होता है। संतान कब (साधारण योग): पंचमेश यदि पंचम भाव में स्थित हो या लग्नेश के निकट हो, तो विवाह के पश्चात् संतान शीघ्र होती है दूरस्थ हो तो मध्यावस्था में, अति दूर हो तो वृद्धावस्था में संतान प्राप्ति होती है। यदि पंचमेश केंद्र में हो तो यौवन के आरंभ में, पणफर में हो तो युवावस्था में और आपोक्लिम में हो तो अधिक अवस्था में संतान प्राप्ति होती है। लग्न में शुभ ग्रह रहने से कम उम्र में पुत्र प्राप्ति होती है, दशम में शुभ ग्रह के रहने से युवावस्था में, चतुर्थ में शत्रु ग्रह होने से स्त्री के यौवनांत में पुत्र प्राप्ति होती है और चतुर्थ में अशुभ ग्रह रहने से वृद्धावस्था में पुत्र-प्राप्ति का योग बनता है। यदि पंचमेश शुभ के क्षेत्र में, केंद्र में अथवा त्रिकोणगत हो तथा शुभयुक्त भी हो, तो बाल्यावस्था में जातक पुत्रवान हो जाता है। संतान कब (अष्टकवर्ग पद्धति): अष्टकवर्ग पद्धति के अनुसार वृहस्पति के मिन्न्ााष्टकवर्ग में वृहस्पति से पंचम भाव में शोधन से पूर्व प्राप्त बिंदुओं की संख्या को वृहस्पति के शोध्य पिण्ड से गुणा करें और प्राप्त गुणफल को 27 से भाग करके शेषफल प्राप्त करें, शेषफल की संख्या नक्षत्र की संख्या दर्शाती है। उस नक्षत्र अथवा इस नक्षत्र से त्रिकोण के नक्षत्र पर वृहस्पति के गोचर का समय जातक की संतान के जन्म के लिए शुभ समय होता है। निम्नलिखित राशियें में वृहस्पति के गोचर का समय गर्भाधान का समय होता है। वृहस्पति के मिन्न्ााष्टक में जिस राशि में अधिकतम बिंदु हो। राशि अथवा नवांश वर्ग में लग्न, चंद्रमा अथवा वृहस्पति से पंचमेश की राशि। गुलिक की राशि अथवा नवांश में। वृहस्पति के अष्टकवर्ग में अधिकतम बिंदु वाली राशि में जब सूर्य गोचर करता है तब भी गर्भादान होता है। जिस समय वृहस्पति के अष्टकवर्ग में सबसे अधिक बिंदु प्राप्त करने वाली राशि उदय होती है तो वह समय विशेष गर्भाधान के लिए समागम करने एवं पुत्र संतान के जन्म के लिए शुभ होता है। वृहस्पति के शोध्य पिण्ड को 4 से गुणा करके प्राप्त गुणनफल को 12 से भाग दें। शेषफल राशि की संख्या दर्शाता है। गोचर का सूर्य जिस सौर-मास में इस राशि में गोचर करता है उस माह में जातक की संतान का जन्म होता है। पुत्र प्राप्त होगा या कन्या (जन्म कुण्डली आधारित योग): पुत्रकारक स्थिति का प्रबलतम योग ः यदि पंचमेश पुरुष ग्रह हो, पुरुष राशि में स्थित हो, पुरुष नवांश में गया हो, बली तथा उसके साथ ही वृहस्पति भी पुरुष राशि व पुरुष नवांशगत हो, तो पुत्र का जन्म होता है। विपरीत होने पर कन्याएं होती हैं तथा पंचम भाव अपने स्वामी अथवा शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट अथवा युत हो। पुत्र कारक स्थिति के अन्य योग: यदि पंचम भाव अपने स्वामी तथा अन्य शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट अथवा युक्त हो, तो पुत्र योग होता है। मीन लग्न के जन्मांग के पंचम भाव में स्थिति हो तो पुत्र योग होता है। वृहस्पति तथा चंद्र की स्थिति कन्या योग है। बुध हो, तो अल्प संख्या में पुत्र होते हैं। मंगल, सूर्य व शुक्र हों, तो पुत्र-पुत्री का विचार अन्य स्थितियों का निरीक्षण करके किया जाता है। यदि एक से अधिक ग्रह पंचम भाव में हों, तो जो ग्रह बली होगा उसी से संबंधित संतान होगी। लग्नाधिपति पुत्र भावगत हो और वृहस्पति बलवान हो तो निश्चय ही पुत्र होता है। लग्न एवं चंद्रमा में जो बली हो, उस स्थान से पंचम स्थान में यदि वृहस्पति के वर्ग का हो और शुभ राशि भी हो अथवा शुभ दृष्टि हो तो जातक को पुत्र अवश्य होता है। यदि केंद्र व त्रिकोणाधिपति शुभ ग्रह हों और पंचमस्थ हों तथा पंचमाधिपति की दुर्बलता न हो अथवा 6, 8, 12वें भाव में न पड़ता हो, पापयुक्त न हो, अस्तगत न हो, नीच का न हो, शत्रु राशिगत न हो, तो पुत्र सुख प्राप्त होता है। यदि लाभ भाव में शुभ ग्रह की राशि हो, लाभेश शुभ ग्रह के साथ हो, लाभेश पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तथा लाभेश केंद्र या त्रिकोणगत हो, तो पुत्र योग होता है। यदि पुरुष ग्रह की महादशा तथा पुरुष ग्रह की ही अंतर्दशा चल रही हो एवं कुंडली में गुरु की स्थिति अच्छी हो तो निश्चय ही पुत्र की प्राप्ति होती है। विपरीत स्थितियों में कन्या जन्म की संभावनाएं होती हैं। यदि सूर्य, मंगल, गुरु, पंचमेश हो तथा बलवान होकर विषम राशि के नवांश में हो तो पुत्र की शीघ्र प्राप्ति होती है। यदि पंचमेश अपनी उच्चराशि में हो तथा उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो विवाह के शीघ्र बाद पुत्र प्राप्ति होती है। लग्नेश और पंचमेश दोनों, नवम भावगत हांे तथा उन पर गुरु की दृष्टि हो, तो धर्मात्मा और धनवान पुत्र प्राप्त होता है। नवमेश और लग्नेश दोनों सप्तम भावगत हो तथा पंचमेश लग्नगत हो तो विद्यावान एवं भाग्यवान पुत्र जन्मता है। पंचमेश और लग्नेश एक दूसरे को देखते हों तथा गुरु त्रिकोण में हो तो स्वस्थ/आज्ञाकारी पुत्र प्राप्त होता है। चंद्र, मंगल और शुक्र तीनों द्विस्वभाव राशि में हो, तो पहले पुत्र का जन्म होता है। वृष या तुला का चंद्रमा पंचम या नवम स्थान में हो तो एक पुत्र होता है। लग्न में राहु, पंचम में गुरु और नवम में शनि हो तो व्यक्ति के एक मात्र पुत्र होता है। उपरोक्त में विशेषकर पुत्र-प्राप्ति संबंधित संतान विचार करते समय पति-पत्नी दोनों की कुंडलियां देखकर निर्णय लेना अधिक उचित है। पति की कुंडली में संतान योग प्रबल हो सकता है, परंतु पत्नी की कुंडली गर्भपात योग प्रदर्शित कर सकती है। संतान योग के साथ-साथ यह भी देख लेना चाहिए कि कुंडली में कोई संतान बाधा योग तो नहीं है। यदि एक ओर संतान बाधा का योग हो और दूसरी ओर संतान का योग हो, तो दोनों का तुलनात्मक विचार करके कुंडली में अन्य ग्रहों एवं गोचर में ग्रह स्थिति तथा महादशा/अंतर्दशा का विचार करके निर्णय लेना चाहिए। संतान बाधा का उपाय: महाऋषि पराशर द्वारा पूर्व जन्मों के पाप-कर्मों/श्रापों के कारण संतान हीनता के प्रति सुझाए गये ज्योतिषीय उपचार निम्न प्रकार हैं। ये सुझाव आज भी यदि जातक पूर्ण श्रद्धा, नियम और हार्दिकता से अपनाता/ करता है तो उसको संतान बाधा से छुटकारा प्राप्त होता है व संतान फल की प्राप्ति होती है। श्राप तथा अपुत्र योग के निर्माण में सहायक ग्रह और निवारण: सर्पदोष (राहू): सूर्य की पूजा, सर्पों के वेद मंत्र से सर्पों की प्रतिष्ठा, गौ-घरसी, सुवर्ण, तिलपात्र का शक्तिअनुसार दान, तंत्र-मंत्र का विधिपूर्वक एक लाख जप करने से सर्पदोष दूर होता है व तत्पश्चात संतान प्राप्त होती है। पितृदोष (सूर्य): पितरों का श्राद्ध, तथा अष्टाक्षर मंत्र का सवा करोड़ जाप करना चाहिए, स्वर्ण दान तथा कन्यादान (विशेष रूप से) पितृदोष से छुटकारा प्राप्त हो, तो संतान प्राप्त होती है। मातृदोष (चंद्रमा): सपत्नीक गंगा स्नान, पांच लाख गायत्री जाप, बछड़ा सहित गौ दान, ह्वन कराएं तिल, चावल, जौ की आहुति, चांदी के पात्र में दूध में अपनी छाया यत्न से देखंे और पांच तोले सोने की मूर्ति डालकर दान करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं, दान दें। एक वर्ष तक प्रतिदिन पीपल का पूजन करें प्रदक्षिणा को जो जातक करता है, तो मातृदोष का नाश होकर पुत्र प्राप्ति होती है। भ्रातृदोष (मंगल): पीपल और वट वृक्ष की वाटिका का रोपण करें- श्रेष्ठ मार्ग पर जल कूप बनवाएं, प्राजापव्य तथा चांद्रायण व्रत करें और श्रेष्ठ फलों को दान करें। द्वादशाक्षर मंत्र का जाप कर ह्वन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराएं, स्वर्ण दान करें। बछड़े सहित गौ की प्रदक्षिणा/दान करें तो पुत्र लाभ होता है। मातुल दोष (पंचम भाव में मंगल, राहू, बुध की प्रतिकूल स्थिति): विष्णु का पूजन, षोडशक्षर मंत्र का बारह लाख बार जप, ह्वन के पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन, भगवान विष्णु का स्वर्ण मूर्ति का ज्योतिषी को दान करें, तालाब, बाग व पुल बनवाना, दोष रहित होकर जातक संतान प्राप्त करता है। ब्रह्मशाप (वृहस्पति): लक्ष्मी सहित विष्णु जी की पचास पल सोने की मूर्ति बनवाकर, सप्तऋषियों का पूजन करें, गंगा जी के तट पर और अष्टादश मंत्र का बीस लाख बार जाप करें। ह्वन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराएं। बछड़ा सहित गौ दान करें, वस्त्र दान करें। जातक को निश्चय ही पुत्र लाभ होगा तथा ब्रह्मश्राप से छुटकारा मिलेगा। स्त्रीदोष (शुक्र द्वारा दोष): श्री लक्ष्मी के वस्त्राभरण सहित कन्यादान, सोने की मूर्ति बनाकर बछड़ा सहित गौ का दान करें। स्त्री-पुरुष को शैया दान करें- गोपाल मंत्र का जाप करें, ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पुत्र प्राप्त होगा। प्रेतशाप (शनि): गयाश्राद्ध करना चाहिए, रुद्रस्नान यत्न से करना चाहिए। ब्रह्मा जी की स्वर्ण मूर्ति ब्राह्मण को दान करनी चाहिए। जो, चांदी का पात्र, वस्त्र और शर्करा सहित, तंदुल सहित दक्षिणायुक्त, ब्राह्मणों को दान करंें और अष्टकादिक श्राद्धों में पितरों का श्राद्ध करने से पुत्र दोष दूर होता है तथा संतान प्राप्ति होती है। धेनु शाप (लग्न में राहू शुक्र और गुरु): गौ पालकर पूजन करें, स्त्री-पुरुष प्रातःकाल उठकर गौ की सेवा में तत्पर रहें। भक्ति सहित धूप, दीप व जल ले करके हरी दूब के अंकरों को अन्न सहित नेवेद्य करके गौ का पूजन करना चाहिए। ‘‘सोमोधेनुः’’ इस मंत्र का जप अपनी भक्ति से कराएं। गौर दान करने से पुत्र प्राप्ति होती है। गुरु: अरुंधति सहित वशिष्ठ की स्वर्ण मूर्ति का दान करें। वस्त्र सहित स्त्री और पुरुषों को आभूषण तथा शैय्या दान करें। गौदान करें, ब्राह्मणों को भोजन कराकर गोपाल मंत्र का जाप करें। वृंदावन, प्रयाग अथवा व्यास के समीप गोदावरी के किनारे जाप करने से पुत्र-लाभ होता है। गुरु दोष दूर होगा- संतान वृद्धि होगी। इस सबसे ऊपर सदियों से जिसकी उपयोगिता सिद्ध है, हरिवंश पुराण में दिए गये ऐसे ‘‘संतान गोपाल’’ मंत्र का श्रद्धा से श्रवण और पठन संतान बाधा मुक्ति का सर्वोŸाम उपाय है। इसके अतिरिक्त ‘‘संतान गोपाल का मूल मंत्र’’ जो निम्न प्रकार है का उच्चारण भी संतान बाधा का क्षय करने तथा संतान लाभ हेतु अत्यंत सहायक है। संतान गोपाल मूल-मंत्र: ऊँ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौ देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते देही में तनयंकृष्ण त्वामहं शरणं गतः। ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय संतान गोपाल स्तोत्र: श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम् सुतसम्प्राप्तैय कृष्ण नमामि मधुसूद- नम ।।1।। जपकाले पठेन्रित्यं पुत्रलाभं चंद्रक्षेयम ऐश्वर्य राजसम्मान सधौयाति न सशयः।।101।। (पूर्ण रूप से पढ़ने हेतु श्री हरिवंश पुराण के समापन् पृष्ठों पर ‘‘संतान गोपाल स्तोत्र का संदर्भ लिया जा सकता है)। उपरोक्त के अतिरिक्त संतानहीनता के संत्रास को संतति जन्म में रूपांतरित करने हेतु निम्न निवारणों का भी आश्रय लिया जा सकता है। औषधिक प्रयोग: योनिशुद्धिकरण एवं नाल परिवर्तन। देवी आराधना: देवताओं की आराधना द्वारा संतानोत्पŸिा की कामना पूर्ण करना ‘‘संतान गोपाल स्तोत्रम्’’ के अतिरिक्त शिव पूजन, नवग्रह पूजन इत्यादि सहित मंगल का व्रत भी संतान-बाधा हेतु अचूक उपाय है। मंगल को शास्त्रों में ऋणहर्ता कहा गया है। मनुष्य का सबसे बड़ा ऋण पितृण है क्योंकि संतान होने से पितरआश्वस्त हो जाते हैं कि हमारां श्राद्ध/तर्पण करने के लिए उŸाराधिकारी उत्पन्न हो गया है। अतः मंगल का व्रत पूजन निश्चय ही संतान प्रद है। यह व्रत विशेषकर स्त्रियों को करना चाहिए क्योंकि मंगल ही स्त्रियों की ऋतु (मासिक धर्म) का प्रवर्तक माना गया है तथा स्त्रियों के अण्डकोष और गर्भाधान की क्षमता का निर्णय मंगल की स्थिति पर ही निर्भर करता है। अतः मंगल संतुष्टि संतान प्राप्ति का अनुपम उपाय है। यांत्रिक प्रयोग: श्री राम-यंत्र तथा रामनुस्मृति, सर्पयंत्र तथा बिल्वपत्र के पŸो पर भगवान शिव का 16 कोष्ठक वाला यंत्र एकान्ती देवता का अनुष्ठान आदि संतान बाधा के प्रभावी उपाय हैं। अन्य प्रयोग: संतान कामेश्वरी प्रयोग: जिन महिलाओं को संतान नहीं होती है उनके लिए यह एक प्रभावशाली उपाय है। शुभ मुहूर्त में भोजपत्र पर अष्टगंध से मध्य में शक्ति त्रिकोण, बाहर सतकोण, उसके अंदर अष्ट दल और भूपत्र बनाकर यंत्र बनाएं। जब प्रतिष्ठान की षोडशोपचार विधि से पूजन कर ‘‘ऊँ क्लीं ऐं ह्रीं श्रीं नमों भगवति संतान कामेश्वरी गर्भ विरोध निरासय-निरासय संयक शीघ्र संतान मुत्पादयोत्पादय स्वाहा’’ मंत्र का 25000 बार जप करें। ऋतुकाल के पश्चात् पति/पत्नी जौ के आटे में शक्कर मिलाकर चने के बराबर छः गोलियां बनाकर ऊपर लिखे मंत्रों से 21 बार अभिमंत्रित करके एक ही दिन खा लें। संतान सुख प्राप्ति के लिए जातक को रविवार का व्रत भी पूर्ण फलदायक है। सूर्य देवता को जल में लाल फूल या रोली तथा गुलाब जल की कुछ बूंदे डालकर प्रातः ‘ऊँ सूर्याय नमः’ कहते हुए अघ्र्य देना चाहिए। साथ ही आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। सूर्य व्रत भी विधि अनुसार रखना चाहिए। सच्ची लग्न से शिव आराधना करें तथा शनिवार को प्रातःकाल पीपल के वृक्ष के पास तिल के तेल का दीपक जलाएं तथा प्रत्येक शनिवार को रोटी पर तेल लगाकर काले कुŸो को खिलाएं। यह एक दिव्य प्रयोग है लाभ अवश्य होता है। पुत्र प्रदाता व्रत श्रावण शुक्ल एकादशी: श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन नियमानुसार व्रत करने से दीर्घयोगी व सुंदर पुत्र की प्राप्ति होती है। इसे पुत्रदा एकादशी भी कहते है। पुत्रदायक षष्ठी देवी: माॅ षष्ठी देवी का पूजन पुत्रदायक है। अतीव बंध्या स्त्री भी षष्ठी देवी की कृपा से संतान जन्म में समर्थ हो जाती है। काकवत्सा, मृतवन्सा नाड़ी भी भगवान की कृपा से पुत्रवती हो जाती है। इनकी कृपा से बालक को कोई रोग भी हो तो उनके स्तोत्र को एक महीना नियमपूर्वक पढ़ने से व्याधि दूर हो जाती है। ‘‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’’: माता-पिता की पूजा देवता के समान करनी चाहिए क्योंकि ये दोनों प्रत्यक्ष देव है जिनका आशीर्वाद पग-पग पर फलता है। इनके प्रसन्न होने पर सभी बाधाएं समाप्त होती है-संतान बाधा भी नहीं होती।



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